शनिवार, ११ मे, २०२४

ग्रीन टाय (हिंदी)

*" ग्रीन टाय "* 
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           मनुष्य जीवन बड़ा ही विचित्र होता है।कई अकल्पित, नवीनता से भरी, रोमांचकारी, सुखमयी और दुखदायी घटनाएँ प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में घटित होती रहती हैं और उसकी विशेषता है कि हर एक का जीवन, दैनिक गतिविधियाॅं भिन्न-भिन्न होती हैं। दो भिन्न व्यक्तियों का जीवन एक- सा कभी नहीं होता।
      जीवन में कभी- कभी दुखद घटनाओं का ऐसा नित्यक्रम आरंभ होता है ,जो थमने का नाम ही नहीं लेता। ऐसे में ऊपर से कठोर दिखने वाला मनुष्य भी निराशा की गहराई में धॅंसता चला जाता है। कुछ लोग अपनी निराशा, अपनी उदासी छिपाकर ऊपर से तो वीरता का भाव दिखाते रहते हैं,परंतु अंदर ही अंदर आँधी के थपेड़े से गिरे किसी पेड़ की भाँति टूट चुके होते हैं। ऐसा प्रसंग हर एक के जीवन में कभी न कभी आता ही है कि तब उसे लगता है कि बस!अब बहुत हो चुका!अब जीवन में रखा ही क्या है ? अब जीवन जीने का प्रयोजन ही क्या है? वैसे तो ऐसे मनुष्य इस बात को स्वीकार नहीं करते, परंतु अंदर ही अंदर वे दुखद घटनाएं,दुखद प्रसंग, उनका स्मरण, तथा उनकी आँच मनुष्य के मन को जलाती रहती है।ये घटनाएं मन की गहराइयों में पैठ जाती हैं। 
        सन 1995 में मैंने मुंबई के जहांगीर आर्ट गैलरी में एक चित्र प्रदर्शनी आयोजित की थी। यह प्रदर्शनी सभी पहलुओं पर खरी उतरी थी।विशेषत: आर्थिक रूप से यह प्रदर्शनी अत्यंत सफल रही थी। उन दिनों मैं नालासोपारा में रहता था और 'केमोल्ड' नामक एक कंपनी में नौकरी किया करता था। मेरा काम कंपनी के फ्रेमिंग डिपार्टमेंट में होने के कारण मुझे लोअर परेल,प्रिंसेस स्ट्रीट, वसई तथा जहांगीर आर्ट गैलरी इन इलाकों में हर दिन जाना पड़ता था। प्रातः 7:00 बजे से लेकर रात्रि 11:00 बजे तक काम करके थका- हारा मैं घर आता था। यह मेरा नित्य दिनक्रम बन चुका था। तथा इसी दिनक्रम को और लोकल की उस जानलेवा भीड़ को सहना अब मेरे लिए कठिन हो चुका था। मेरे मन में एक ही भाव बार-बार उमड़ता रहता था कि मैं यहाॅं हर दिन जी नहीं रहा हूॅं, बल्कि प्रतिदिन मर रहा हूॅं।               
          मुझे हमेशा से ही पंचगनी- महाबलेश्वर की प्रकृति, वहाॅं का प्राकृतिक सौंदर्य अपनी ओर आकर्षित करता रहा था।इसलिए मैंने अपने पैतृक गांव वापस जाने का निर्णय लिया।पंचगनी में मुझे अपने चित्रों के विक्रय के लिए आर्ट गैलरी तैयार करनी थी।इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए मैं दिन-रात बेचैन रहता था।इसके लिए मैं हर संभव प्रयास कर रहा था।आखिरकार मेरी लगन  रंग लाई और मुझे सिडनी पाॅईंट के पास एक पुराना बंगला किराए पर मिल गया।उस पुराने बंगले को आर्ट गैलरी का रूप देते -देते मेरे पैसे कब और कैसे हवा हुए, मुझे पता ही नहीं चला।फिर भी अपनी जिद पूरी करते हुए मैंने आर्ट गैलरी बनाई। सौभाग्य से सभी पर्यटक तथा स्थानीय निवासी दोनों ने उसकी अच्छी सराहना की। परंतु 1 साल पूरा होने से पहले ही मकान मालिक ने धोखा दिया और मकान खाली करने के लिए कहा। मैंने कई बार उससे विनती की, पर वह नहीं माना। तब व्यावसायिक दृष्टि से मैं पूरी तरह से टूट गया। तत्पश्चात काल ने ऐसी करवट बदली कि मेरे बुरे दिन शुरू हुए …….
      एक नई शुरुआत, नए स्थान की खोज आरंभ हुई।कभी पंचगनी क्लब, कभी टेबल लैंड की गुफा तो कभी मैप्रो गार्डन-ऐसी नई-नई जगहों पर गैलरी बनाने का प्रयास करता रहा। हर जगह नई अडचनें, नया इंटीरियर, नए प्रयोग करने पड़ते थे। हर साल जगह बदलनी पड़ती थी।उन दिनों एक बार मैंने मैप्रो गार्डन में खुले आसमान के नीचे 'प्लाजा' जैसी प्रदर्शनी लगाई थी। परंतु यहाॅं पर भी दुर्भाग्य ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। एक दिन मई के महीने में अचानक किसी बिन बुलाए मेहमान की तरह आसमान में बादल घूमडकर आए। जोरों की वर्षा हुई और देखते ही देखते मेरे सारे चित्र, ग्रीटिंग कार्ड ,कैलेंडर ,पोस्टर सभी कुछ तहस-नहस कर चली गई। उन चित्रों के साथ मेरी सारी मेहनत और मेरी उम्मीदों पर भी पानी फिर गया। मॅप्रो का कोई भी कर्मचारी मेरी सहायता के लिए आगे नहीं आया। एक-एक स्थान पर जाकर वहां घंटों बैठकर बनाए हुए लगभग 200 चित्र नष्ट हो गए। मॅप्रो के मालिक ने न कोई सहानुभूति जताई, न किसी प्रकार की कोई सहायता की। बल्कि उन्होंने तो मुझे धमकी दे दी कि अगर अभी-इसी समय चित्रों का यह कचरा नहीं उठाया तो उसे रास्ते पर फेंक दिया जाएगा।उन्होंने केवल धमकी नहीं दी वरन् उसे पूरा भी कर दिखाया। उस समय उन्होंने मेरी जो अवहेलना की वह मेरे मानस पटल पर सदा के लिए चिन्हित हो गई। जैसे किसी तेज चाकू से प्रहार कर मेरे मन को क्षत-विक्षतकर दिया हो।
               इतने परिश्रम से बनाए गए चित्र नष्ट होने पर तो जैसे मेरे जीवन जीने का संबल ही खत्म हो गया। रहने के लिए घर नहीं, जिंदा रहने के लिए पैसे नहीं, घर वालों का कोई आधार नहीं, ऐसी स्थिति में निराशा के अंधकार ने मुझे अपने गर्भ में दबा लिया। मन में उदासी और निराशा के काले बादलों ने मानो हमेशा के लिए बसेरा कर लिया। फिर अपना जो कुछ थोड़ा-बहुत सामान था ,वह सब उठाकर मैं फिर से मुंबई चला आया। परंतु जगह बदलने से अडचनें थोड़े ही कम होने वाली थीं?  मेरे भाग्य को शायद कुछ और ही मंजूर था। मुंबई में मैं फिर से नालासोपारा में रहने लगा।परंतु मेरे जीवन का सबसे बड़ा वज्राघात यहीं पर हुआ।मेरी इकलौती बेटी को डॉक्टर की अक्षम्य में गलती के कारण अपने प्राणों से हाथ धोने पडे। डॉक्टर के गलत इंजेक्शन ने उसकी जान ले ली। इस आघात को सहना मेरे बस की बात नहीं थी। मैं पूरी तरह टूट गया। मैं अंतर्बाह्य रूप से दहल गया।
           मेरे मन में अब जीवन की कोई लालसा नहीं रही। जहाॅ-जहाॅ भी मैं गया, सभी जगह निराशा ही मिली। मेरे अंधकार रुपी जीवन की एक मात्र प्रकाश ज्योति भी बुझ गई। ऐसे में जीवन जिए तो कैसे ? और क्यों ? किसके लिए ? ऐसा संघर्षमय जीवन और कितने वर्षों तक जिए ? इन प्रश्नों ने मेरे मन मस्तिष्क को झंझोडकर रख दिया। इस निरंतर संघर्ष से अब मैं थक चुका था। हार चुका था। इसीलिए मैंने आत्महत्या करने का निश्चय किया।मन ही मन मैंने अपना निर्णय अटल कर लिया।
           पंचगनी क्लब के ठीक सामने ही सेंट पीटर्स चर्च है।उस चर्च के पीछे एंग्लो इंडियन ख्रिश्चन लोगों की दफन भूमि है।यहां का परिवेश अत्यंत शांत एवं प्रकृति गंभीर है। पंचगनी की खोज जिस अंग्रेज अधिकारी ने की उस जॉन चेसन की कबर यहाॅं है।यह कबर वर्षो से उपेक्षित है।पता नहीं क्यों, पर आत्महत्या करने से पहले एक बार उस कबर के दर्शन कर लूं, फिर मै और मेरी पत्नी स्वाती दोनो आत्महत्या करूॅ,  यह हमने मन ही मन तय कर लिया। अपराहन 2:00 बजे लगभग मैं वहाॅ पहुॅंचा। जिस व्यक्ति ने पंचगनी की खोज की,अनगिनत फल फूलों के पेड़ लगाएं, सिल्वर ओक के पेड़ लगाएं,कॉफी, आलू,स्ट्रॉबेरी आदि की खेती शुरू की, इस भूमि पर पहला बंगला बनाया, इस परिवेश का अध्ययन कर इसे एक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया,ब्रिटिश अधिकारी- कर्मचारियों के बच्चों के लिए अंग्रेजी स्कूल शुरू किए,उस महान जॉन चेसन की कबर अत्यंत उपेक्षित पड़ी है। पता नहीं कितने वर्षों से वहां की साफ सफाई न हुई हो। मैंने आस-पास की झाड़ियों को तोड़कर जगह साफ की और वहीं बैठ गया। 
          जैसे ही मैं उस कबर के सामने बैठा, पता नहीं कैसे पर मेरी अंतरात्मा को एक अजीब-सी अनुभूति हुई और मैं आंखें मूंदकर उस कबर के साथ बातचीत करने लगा। इस निर्जन स्थल पर ध्यान मग्न हो गया। मुझे मेरे आस-पास के परिवेश का कोई ध्यान नहीं रहा। कई घंटों तक मैं उसी समाधि अवस्था में वहां बैठा रहा।अचानक मेरे कंधे पर किसी हाथ का आभास हुआ और मैंने अपनी आंखें खोली। पीछे मुड़कर देखा तो मेरा मित्र आयझॅक सिंह नजर आया। आयझॅक ने मुझे प्रेमावेग से अपनी बाहों में भर लिया। मेरे आंसू पूछे, मुझे सांत्वना दी और मेरी सारी कहानी ध्यान पूर्वक सुनी।
           आयझॅक पंचगनी में कंप्यूटर सिखाता था। संगणक तथा उसके शास्त्र का संपूर्ण ज्ञान उसे था। सभी को वह प्रेम से,अपनेपन से सिखाता था। मुझे कंप्यूटर पर चित्र बनाने के लिए प्रोत्साहित करता था और चित्र बनने पर सच्चे मन से प्रशंसा भी करता था। सभी को प्यार से समझाने-सिखाने के कारण देसी विदेशी छात्र प्रसन्नता से उससे कंप्यूटर सीखते थे। वह हमेशा अपने काम में व्यस्त रहता था। उसका चलना भी मानो दौड़ना होता था। आयझॅक बहुत ही सच्चा,मजेदार और जिंदादिल इंसान था…….
          'अब मैं आत्महत्या करने जा रहा हूं'  ऐसा कहने पर उसने प्रथमत: मेरा अभिनंदन किया और बोला कितने कठिन संघर्ष से तूने चित्रकला सीखी, पंचगनी के प्राकृतिक सौंदर्य के असंख्य के चित्र बनाएं, चित्र प्रदर्शनी की। पर अपनी स्वयं की जगह न होने के कारण तुझे बहुत परेशानी , बहुत अडचनें सहनी पड़ी, इस बात का मैं गवाह हूॅ। तेरे सभी चित्र बारिश में नष्ट हो गए, आर्थिक स्थिति खराब हुई। तेरे सभी प्रश्नों के उत्तर तो मेरे पास नहीं हैं।तुझे सफलता क्यों नहीं मिली?  यह मैं नहीं बता सकता। पर तूने बहुत संघर्ष किया है, परिश्रम किया है।इसलिए तू आत्महत्या मत कर ऐसा भी मैं तुझे नहीं वह कहूंगा। मैं तुमसे एक ही विनती करता हूं कि जो कला तेरे हाथों में जीवित है, वह तेरे साथ ही खत्म हो जाएगी……..
          इसलिए तू कुछ दिनों के लिए बिलिमोरिया स्कूल में बच्चों को चित्रकला सिखा। वहाॅ कोई कला शिक्षक भी नहीं है।उन बच्चों को एलिमेंट्री और इंटरमीडिएट आदि चित्रकला की परीक्षाएं देनी है। उन्हें गुरु की आवश्यकता है। तू अगर आत्महत्या कर चला गया तो तेरी कला भी तेरे साथ ही चली जाएगी।अगर तूने तेरी यह कला किसी और को न सिखाई तो सामने दिख रहा है येशू तुझे कभी माफ नहीं करेगा…
           तू केवल एक महीने तक इन बच्चों को चित्रकला सीखा और फिर आत्महत्या कर। मैं तुझे नहीं रोकूंगा…
     पर मैंने अभी तक चित्रकला किसी को सिखाई नहीं।यह अंग्रेजी माध्यम का स्कूल है। मैंने ए.टी.डी. या ए.एम. की पदवी नहीं प्राप्त की है।ऐसे में वे लोग मुझे कैसे स्वीकार करेंगे ? यह मुझसे नहीं होगा।
    मैंने कमर्शियल आर्ट सीखा है,पर शिक्षा से मिला कभी कोई संबंध नहीं रहा है।ऐसी विनती मैंने उससे की।
आयझॅक बहुत ही हठी था। उसने अपने गले की ग्रीन टाय निकाल कर मेरे गले में डाल दी और कहने लगा- ' मिस्टर आर्टिस्ट सुनील काले, नाउ यू आर लुकिंग वेरी स्मार्ट आर्ट टीचर।' मैं तुम्हें वचन देता हूं कि तुम्हें वहाॅ किसी प्रकार की कोई तकलीफ नहीं होगी। तुम्हारा इंटरव्यू भी नहीं होगा।कोई शर्त नहीं होगी। सुबह का नाश्ता, दो समय का खाना, शाम की चाय और रहने के लिए एक कमरा मिलेगा। 
     मनुष्य को जीने के लिए और क्या चाहिए ?  रोटी, कपड़ा, मकान और एक नौकरी…..
     तुम्हें अगर यह सभी चीजें मिल रही हो तो तुम्हें इस चुनौती को स्वीकार करना चाहिए। एक महीने की तो बात है।उसके बाद तू जो आत्महत्या करने जा रहा है, उसे भी मैं विरोध नहीं करूंगा। फिर समस्या क्या है ?  इस संसार से जाने से पहले अपने सर्वोत्तम अनुभव, अपना सर्वोत्तम ज्ञान तू बच्चों को दे यही मेरी विनती है।
         थोड़ा शांति से सोचने पर मुझे उसकी बात सही लगी। अपना सर्वोत्तम ज्ञान, अपनी सर्वोत्तम कला बच्चों को दूॅगा और तभी आत्महत्या करुॅंगा, यह निश्चय मैंने कर लिया।
        दूसरे दिन सुबह बिलिमोरिया स्कूल पहुंच गया। प्रधानाचार्य साइमन सर ने मुझे नियुक्ति पत्र दिया और एक छोटे बच्चों की कक्षा में अध्यापन के लिए भेज दिया। कक्षा में प्रवेश करते ही मुझे देखकर वह छोटे-छोटे बच्चे खुशी से झूम उठे। बहुत वर्षों बाद उन्हें आर्ट टीचर मिले थे। इसलिए उनमें उत्साह भर आया और वे सभी लड़के-लड़कियां मेरे इर्द-गिर्द इकट्ठे हो गए। सभी अपने-अपने चित्र, चित्रकला की कापियां, क्रेयॉन कलर बॉक्स दिखाने लगे।बच्चों का यह उत्साह देखकर मैं भी उत्साहित हुआ और खुशी से उन्हें चित्रकला सिखाने लगा। मुझे ऐसा आभास होने लगा मानो मैं अपनी छोटी बच्ची को ही चित्रकला सिखा रहा हूॅं।
      सिखाते सिखाते 2 घंटे कैसे बीत गए मुझे पता ही नहीं चला। सायली पिसाल, आकाश दुबे,उत्सव पटेल, ताहिर अली ऐसे नाम मुझे आज भी स्मरण हैं। तब पहली तासिका के बाद दूसरी कक्षा,नए बच्चे, नई पहचान, नई जिज्ञासा वाले नए बच्चे, उनकी निश्छल भावनाएं।मुझे अंतर्मन तक छू गई। नई पहचान, नया परिचय पाने के बाद वे छोटे बच्चे-बच्चियाॅं स्कूल के बाद भी मेरे कमरे के आसपास ही घूमने लगे। उन्हें अपने नए चित्र मुझे दिखाने होते थे। फिर मैं भी उन्हें क्राफ्ट, ऑरिगामी,  चित्रों के अलग-अलग विषय, प्रकार उन्हें सिखाने लगा। नियमित रूप से उनके व्यक्तिचित्र, स्केचिंग करने लगा। मुझे काफी नए मित्र  बिलिमोरिया स्कूल में मिले। इस प्रकार एक महीना, दूसरा महीना,तीसरा महीना कैसे बीता पता ही नहीं चला।
           एक स्कूल का यह नया अपरिचित संसार मैं अनुभव कर रहा था।
यह मेरे लिए बहुत ही अलग था। स्कूल में भले ही मैं हर रोज नई-नई शर्ट पहनता था, पर मेरी टाय एक ही होती थी-
                         आयझॅक सर ने दी हुई ग्रीन टाय।
          इस प्रकार एक वर्ष बीत गया और अगले वर्ष मैंने सेंट पीटर्स नामक ब्रिटिश स्कूल में नौकरी स्वीकार की तथा मेरी पत्नी स्वाती मेरे स्थान पर बिलिमोरिया स्कूल में पढ़ाने लगी।
सेंट पीटर्स स्कूल में चित्रकला विषय को सदैव प्रोत्साहन मिलता था। बच्चे नई- नई बातें सीख रहे थे। उनके साथ मेरी भी चित्रकला नया रूप, नया साज लेकर निखर रही थी। इस नए स्कूल के परिवेश, उसके प्राकृतिक सौंदर्य एवं वास्तुकला के नए चित्र मैं बनाने लगा। इन दिनों मेरी चित्र प्रदर्शनी नेहरू सेंटर, फिर ओबराय टाॅवर होटल और 2002 में जहांगीर आर्ट गैलरी में हुई। यहां दर्शकों ने उसे खूब सराहा और चित्रों की अच्छी बिक्री हुई।
         मेरी आर्थिक स्थिति में भी सुधार आया और मैंने 2003 में एक रो-हाउस खरीदा तथा एक नए स्टूडियो का निर्माण भी किया।
         सेंट पीटर्स स्कूल में ड्रेस कोड होने के कारण मैंने कई सारे नए कपड़े खरीदे। उन दिनों मेरे पास रंग बिरंगी कुल 80 टाय जमा हो चुकी थी। आज भी यादों के रूप में मैंने उन्हें संभाल कर रखा है। परंतु उन सब में एक टाय मैंने बहुत प्यार से, लगाव व अपनेपन से संभाल कर रखी है-
वह है आयझॅक सर की दी हुई ग्रीन टाय।
         आज भी कभी मैं निराशा तथा दुख में डूबता हूॅं, तब मुझे आयझॅक की याद आती है। आजकल आयझॅक अमेरिका में रहता है और अब उसकी शादी भी हो चुकी है। फेसबुक पर कभी-कभार संपर्क हो जाता है। जीवन में कितना भी अमीर बनूं, मेरी आर्थिक स्थिति मजबूत हो या कमजोर हो-फिर भी एक चीज मैं उसे कभी वापस नहीं करूंगा और वह है उसने दी हुई ग्रीन टाय। 
           ……..क्योंकि वह ग्रीन टाय मुझे स्वयं ही कभी-कभी आयझॅक बना देती है। मुझे मिलने कई कलाकार मित्र आते रहते हैं। कुछ नवसीखिए होते हैं,कुछ निराशा में डूबे होते हैं, किसी ने सभी उम्मीदें खोई होती हैं, कुछ कला शिक्षक होते हैं। वे कई बातों की शिकायत करते हैं, दुखड़ा सुनाते हैं। उनकी कई समस्याएं होती हैं, पर उन्हें समस्याओं का समाधान नहीं मिलता। ऐसे प्रसंग में मैं काले सर के स्थान पर आइझॅक सर बन जाता हूॅं। मैं तो कहूंगा कि आयझॅक का संचार मुझमें हो जाता है।
            जब-जब ऐसे निराश, व्यथित , दुखी लोग हमें मिलते हैं तब- तब हम सभी ने, प्रत्येक व्यक्ति ने आयझॅक बनकर उनको इस निराशा, व्यथा और दुख से बाहर निकालना चाहिए, ऐसा मेरी अंतरात्मा मुझे बताती रहती है। उसकी ग्रीन टाय का स्मरण कराती रहती है।
          जीवन आत्महत्या कर समाप्त करने के लिए नहीं होता, अपितु अपने जीवन और व्यक्तित्व का सर्वोत्तम देने के लिए, सर्वोत्तम जीने के लिए,सर्वोत्तम सीखने के लिए,सर्वोत्तम सिखाने के लिए, सर्वोत्तम देखने के लिए, सर्वोत्तम सुनने के लिए, सर्वोत्तम सुनाने के लिए, जीवन के हर सर्वोत्तम पहलू को उजागर करने के लिए होता है।
         ऐसे कई आयझॅक मुझे समय-समय पर मिलते गए और मेरा जीवन समृद्ध करते गए। 21 वर्ष हुए अब इस घटना को। आत्महत्या का विचार भी अब मैं भूल चुका हूं। ऐसे कई आयझॅक हमें अलग-अलग नामों से, अलग-अलग रूपों में मिलते रहते हैं। कभी कोई मिला तो आपको भी ऐसा आयझॅक और एक ग्रीन टाय मिले। नहीं तो.....
          आप ही किसी का आयझॅक बन जाएं और उस निराश दुखियारे को एक ग्रीन टाय दें और उसके जीवन के अंधकार को सदा के लिए दूर कर दे।

            इसी कामना के साथ…...

ऐसी है मेरी ग्रीन टाय की यादें…...

मुझे सदैव प्रकाश पर्व की ओर ले जानेवाली.....


✍️सुनील काले[ चित्रकार]
9423966486.

प्रजासत्ताक दिन

स्टॅन्डर्ड
🌟🌟
मायानगरी मुंबईचे अनुभव
🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟
         मागच्या वर्षी प्रदर्शनाच्या वेळी मी पार्ल्याला गेलो होतो .कारण तेथे  अष्टपैलू चित्रकार , लेखक , कार्टूनिस्ट , गायक , मिमिक्रीकार , कलाशिक्षक असे बहुगुण संपन्न असणारे सी एस पंत [ चंद्रशेखर पंत] नावाच्या आमच्या मित्राने खास घरी येण्याचे निमंत्रण दिले होते . 
      चंद्रशेखर पंताचे व्यक्तीमत्व अतिशय प्रभावी आहे . झाकीर हुसेनसारखे लांब केस , मोठा काळ्या रंगाचा फ्रेमचा चष्मा , आणि कानाशेजारी खूप लांब मोठे कल्ले . त्यात आता वयामुळे केस पांढरे झालेले त्यात ते नेहमी झब्बा घालतात त्यामुळे त्यांना पाहताच हा माणूस ' कल्लाकार ' आहे हे लगेच लक्षात येते . मी मात्र साधा राहायचो . माझी पर्सनालाटी दाढी घोटून फक्त मिशा ठेवल्याने चित्रकार सोडा फार तर काय , धड कारकूनही मी शोभायचो नाही . एखाद्या कंपनीचा अंकौटंट वाटायचो . मग आपला काहीतरी बदल करून कायापालट करायचा मी ठरवले . मग दाढी वाढवली . पण माझ्या दाढीचे केस राठ असल्याने चेहऱ्यावर काटेरी गवत उगवल्याचा मलाच भास व्हायला लागला . मग मी सगळे आर्टिस्ट ठेवतात तशी बुल्गानीन दाढी ठेवली तर ओठांच्या खाली हनुवटीच्या भागावर सगळ्या भागात केसच उगवायचे नाहीत मग दोन्ही साईडला कट मारला व आताची स्टाईल केली . मग मी जरा थोडा चित्रकार दिसावा म्हणून अनेक कप्यांचे फोटोग्राफरचे जॅकेट घालायला लागलो . केस रंगवायचे पुर्ण सोडून दिले . आता मी चित्रकार दिसू लागलो . पण नुसता चित्रकार दिसून काय फायदा ? कारण चेहऱ्याने मी सुमार व्यक्तीमत्वाचा असल्याने गरीब बावळटच वाटायचो , माझी चित्रं  विकायची असतील तर जरा भारदस्तपणा वाटायचा नाही . मग एकदा पुण्याला गेलो होतो त्यावेळी अभिनव कॉलेजच्या समोर सिलाई नावाच्या दुकानातून एक जीन्सचा ब्लेझर घेऊन ठेवला . प्रदर्शनात शाईनिंग मारायला उपयोगी पडेल म्हणून आणि आता तो मी सात दिवस घालतोय .
         आता हे सगळे व्यक्तिमत्व विकासाचे पुराण का सांगतोय ? तर सविस्तर किस्साच सांगतो .
         2004 साली आमचे नेहरू सेंटरलाच प्रदर्शन होते . माणसे यायची व जायची . कोणी टाईबुट घालणारा , कोणी फॉरेनर , कोणी पारशासारखा दिसणारा , कोणी भारदस्त व्यक्तिमत्त्वाचा , कोणी गोऱ्यापान बॉबकटवाल्या स्टाईलीश लिपस्टीक लावलेल्या उच्चभ्रू बायका , किंवा ऑफीसला जाताना अपटूडेट माणूस दिसला की आम्हाला वाटायचे क्लाएंट आला , हा माणूस स्टॅन्डर्ड दिसतोय म्हणजे चित्र घेणार असे वाटायचे . आम्ही लगेच छापलेले ब्रोशर घेऊन त्याला प्रभावित करण्यासाठी ॲटेन्ड करायला धावायचो पण बऱ्याचदा तो फुसका बार निघायचा . एखादा साधा माणूस दिसला की आम्ही दुर्लक्ष करायचो . कारण चित्राच्या किमती त्याला परवडतील असे वाटायचे नाही .
           त्या प्रदर्शनात एक साधा बुशशर्ट , पायात साधी बाटाची ब्राऊन कलरची सॅन्डल व पँट घातलेली व्यक्ती आली त्याच्याबरोबर एक जाडा माणूस सोबत होता . मी त्याला ॲटेन्ड करायला उठलोच नाही . हा काय चित्र घेणार ? हा विचार मनात येऊन मी न्यूजपेपर वाचत बसलो . ते गृहस्थ शांतपणे गॅलरीत प्रत्येक चित्र पहात होते . मी निवांत बसलो होतो इतक्यात सद्गृहस्थ माझ्याकडे आले व शांतपणे म्हणाले एक्स्कूज मी , मला ह्या एका भिंतीवर लावलेली सगळी चौदा चित्र घ्यायची आहेत . कॅन यू बुक फॉर मी .
          मी त्यांच्या चेहऱ्याकडे पहात म्हणालो यु वॉन्ट फोरटीन पेंटींग्ज ? एकदम चौदा चित्र मागतोय म्हणजे काय आपली गंमत करतोय का काय ? कदाचित टाईमपाससाठी हा माणूस आला असणार . मी म्हणालो ही प्राईजलिस्ट घ्या त्याच्या किंमती बघा व त्यानंतर ठरवा . तर हे गृहस्थ म्हणाले नो प्रोब्लेम फॉर मी , व्हाटेवेअर प्राईज इज देअर आय एम रेडी टू पे . 
आता मी चक्रावलो . 
मग त्यानां सांगितले ही चौदा चित्रे घेतलीत तर एक मोठी अमाऊंट होईल प्लीज चेक द प्राइजेस . 
तर गृहस्थ म्हणाले आय टोन्ड हॅव एनी प्रॉब्लेम . मग मीच कॅल्क्युलेशन करून सांगितले या चौदा चित्रांची तीन लाख चाळीस हजार एवढी मोठी अमाऊंट आहे . तुम्हाला परवडेल का ? तर म्हणाले ओके , नो प्रोब्लेम , पुट रेड टॅग ऑन द पेंटींग्ज . 
आता माझे डोके विचित्र अनुभवाने गरागरा फिरू लागले .
 
मग मी त्यांना सांगितले मी मुंबईत राहत नाही . मी व माझी पत्नी स्वाती दोघेही पाचगणीला राहतो जर तुम्ही चित्रे बुक करत असाल तर तुम्हाला थोडे पैसे ॲडव्हान्स द्यावे लागतील . कारण तुम्ही चित्रे घ्यायला आला नाहीत तर आमचे नुकसान होईल . मग सदगृहस्थ गालात छान हसले , ओके नाऊ आय अंडरस्टुड युवर प्रॉब्लेम . आणि मग त्यांनी शेजारी उभ्या असलेल्या माणसाला काहीतरी कानात सांगितले . तो माणूस बाहेर गेला व दोनच मिनिटात प्लास्टीकच्या बॅगेत संपूर्ण रक्कम रोख घेऊन आला . सदगृहस्थानी सगळी रक्कम टेबलवर ठेवली व सांगितले आता आशा करतो की तुझे सर्व प्रश्न संपले असतील .
 मी तर भारावलेल्या अवस्थेत त्या नोटांच्या बंडलाकडे  दोन मिनिटे बघतच राहीलो . काय सुधरेनाच . इतके पैसे एकावेळी बघायची सवयच नव्हती . त्यावेळी ज्या सेंट पीटर्स शाळेत कलाशिक्षक म्हणून नोकरी करायचो . तेथे माझा दर महिन्याचा पगार सात हजार सातशे होता त्यात कंटींग होऊन जो पगार मिळायचा त्यात महिना भागवायला लागायचा . माझ्या मनात असंख्य विचार येत होते . मी जणू ट्रान्समध्ये वेगळ्या स्वप्नातच विहार करत गेलो होतो . हे सत्य आहे का स्वप्नात आहोत असे क्षणभर वाटले .
त्या सदगृहस्थानी मला स्वप्नातून भानावर आणले .
प्लीज पॅक द पेटींग्ज ,आय विल टेकिंग एव्हरीथिंग टुडे ओन्ली .
मग चित्रांचे पॅकिंग करताना मी त्यांना विचारले आपण काय करता ?
तर म्हणाले एक कंपनी चालवतो .
कसली कंपनी ? नाव काय कंपनीचे ?
मग सद्गृहस्थ म्हणाले  'अंबूजा सिमेंट ' .
मी आश्चर्याने विचारले वो टिव्ही पे ॲड आती है विराट स्ट्रेन्थ , छोटा हत्ती , अंबूजा सिंमेटकी दिवार टुटेगी नही भाई वो वाली अंबूजा सिमेंट  .
मग सदगृहस्थ खूष झाले म्हणाले हा वही अंबूजा सिंमेट . 
आय एम मॅनेजिंग डायरेक्टर ऑफ अम्बूजा सिमेंट मिस्टर नरोत्तम सेकसारीया .
       नरोत्तमभाईंचा हा सरळसाधेपणा पाहून मी थक्कच झालो .
       आम्ही माणसांची पारख कपड्यावरून , त्याच्या गाडीकडे पाहून , त्याच्या घराकडे पाहून , त्याच्या राहणीमानावरून करतो व लगेच अनुमान काढतो . गरीब ,सामान्य परिस्थितीतला मित्र , नातेवाईक , पाहूणा असला की दुर्लक्ष करतो . खोटा दिखावा तर खूप करतो . जो मी आहे तसा न दाखवता खोटेपणाची झूल पांघरून मी बघा किती 
" स्टॅन्डर्ड " माणूस आहे उच्च रहाणीमानाचा उच्चभ्रू आहे हे दाखवण्याचा प्रयत्न करतो . पण जी माणसे खरी असतात ती वेगळी असतात .त्यानां दिखावा करायची कधी गरज पडत नाही कारण ती विराट स्ट्रेन्थ  असलेली भरभक्कम मजबुतीची अंबुजा सिमेंटसारखी असतात .
         मी व स्वातीने त्यांची सर्व पेंटीग्जची व्यवस्थित नीट पॅकिंग केली व त्यांच्या गाडीत ठेवली . पाचगणी वाईसारख्या छोट्या गावातून एक तरुण जोडपे फक्त पेंटींग्ज करून जगते व सर्वांनां चित्रातून आनंद देते हे ऐकून त्यांनी आमचे कौतुक केले . दुसऱ्या दिवशी त्यांच्या घरी खास जेवणाचे आमंत्रण दिले . आमच्यासाठी खास पर्सनल सेक्रेटरी गाडी घेऊन पाठवली . 
मेकर्स टॉवर्सच्याजवळ ती इमारत होती . कफ परेडसारख्या एरियात सर्वात महाग जागेतील ती संपूर्ण इमारतच त्यांच्या मालकीची होती . घरातच डायरेक्ट लिफ्ट होती . त्या घरात भारतातील सर्वात प्रसिद्ध असलेल्या  सर्व मान्यवर चित्रकारांची चित्रे होती . ती सर्व चित्र आम्हाला त्यांनी फिरून दाखवली . घरात साधा सफेत कुर्ता पायजमा स्लीपर घातलेले नरोत्तमभाई मला खूप मोठी शिकवण देऊन गेले . 
माणसे साधी  दिसतात म्हणून दुर्लक्ष करायचे नाही . ते माणसे जशी असतील तशी स्विकारायची .त्यांची कपडे साधी असतात म्हणून किंवा त्यांचे राहणीमान पाहून त्यांनां कधीच दूर लोटू नये . सर्वांनां सन्मानाने वागवावे . 
त्यादिवशी त्यांनी आणखी पन्नास हजार रुपये स्वातीच्या हातात देत म्हणाले खूप आनंद झाला मला तुमची चित्रं पाहून , या आनंदाची किमंत म्हणून हे पैसे देत आहे . आम्ही अर्थात नकार दिला . मग म्हणाले ठिक आहे तुम्ही पैसे घेत नाही तर माझ्यासाठी एक मोठे चार फूट बाय सहाफुटाचे वेळ मिळाला की सुर्यफुलांचे पेंटींग करा . स्वातीने ते पेंटींग करून दिले अशी खरी माणसे त्यांचे खरे  " स्टॅन्डर्ड " दर्शवतात .
          तो दिवस आज पुन्हा आठवला .
आज अशीच एक वयस्कर साधी कपडे घातलेली मराठी व्यक्ती गॅलरीत आली होती . त्यांच्या तर हाताच्या शर्टची बटनेपण लावलेली नव्हती . 
पण आता मला शहाणपणाचा अनुभव होता . अनुभव खूप शिकवतो .
 मी लगेच उठून त्यांचे स्वागत केले . त्यानां सोबत घेऊन सर्व चित्रे दाखवली तर आम्ही वाईचे आहोत हे ऐकून खूष झाले . म्हणाले आहो आम्हीपण पूर्वी वाईचे होतो . गोखले , रास्ते यांच्या घरातले . वाईच्या महागणपती मंदिराचा मी ट्रस्टी आहे . मग हातात हात घेऊन सगळीकडे फिरले .भरपूर फोटो काढा म्हणाले . शेवटी सगळी चित्रे बघून एक सर्वात उत्तम चित्र त्यांनी पसंद केले मला हे चित्र खूप आवडले म्हणत बऱ्यापैकी घासाघीस करून म्हणाले अहो चित्रातले मला काय कळत नाही .आपला थोडा थोडा संग्रह करत असतो . 
      मग पैसे देण्याची वेळ आली तर म्हणाले मला गुगल पे ,ऑन लाईन पेमेंट काय कळत नाय वो . मग मी म्हणालो ATM ने पैसे दया ,तर म्हणाले अहो माझ्याकडे कार्डबिर्ड काहीच नाही . मी आपला साधा माणूस .मग सर्वात शेवटी चेकने पैसे देतो म्हणाले .ड्रायव्हरजवळ चेक पाठवून देतो तोपर्यंत पेंटिंग पॅक करून ठेवा आमचा निरोप घेऊन घेऊन बाहेर चालत हळूहळू निघून गेले .
पाच मिनिटांनी ड्रायव्हर चेक घेऊन आला . 
हातात एक व्हिजिटिंग कार्ड दिले . 
त्या कार्डावर लिहिले होते . 
पार्टनर - वामन हरी पेठे ज्वेलर्स .
ड्रायव्हरला म्हणालो पेंटींगची साईज जरा मोठी आहे , गाडीत बसेल का ?
तर म्हणाला का नाही बसणार ? लई मोठ्ठी BMW आणली आहे .

        समर्थ रामदासांनी सांगितलेच आहे की, 'वेष असावा बावळा। परि अंतरी नाना कळा। तुमचा रुबाबदार पोशाख लोकांच्या मनावर काही काळ छाप पाडू शकेल, पण तुमच्या अंगी काहीच कार्य- कौशल्य नसेल वर तुमचे रुबाबदार कपडे कवडीमोलाचे ठरतात. मात्र, तुमच्याकडे विविध कला असल्या तर तुमच्या अंगावरच्या फाटक्या कपड्यांकडे कोणीही पाहणार नाही. तुमच्या कलांचेच कौतुक केले जाते व गोडवे गाईले जातील . गाडगेबाबांच्या अंगावर कायम फाटके कपडे असायचे, पण त्यांच्या कीर्तनाला असंख्य लोक जमायचे. रस्त्यावर एखादे सुंदर चित्र काढणारा फाटक्या कपड्यांत असला तरी लोक त्याच्याकडे पाहत नाहीत. त्याच्या चित्राची वाहवा करून त्याला बक्षिसी देतात. उघड्या अंगाने खेळ करणान्या डोंबाऱ्याचा खेळ पाहायलाही गर्दी होते. का? तर त्याच्या अंगी असलेल्या नाना कळा आपणांस मोहवतात.​

आता तर मी कपड्यावरून कधीच कोणाचे स्टॅन्डर्ड ठरवत नाही . पण अशा शाळेतील भारी स्टॅन्डर्डची एक भारी गोष्ट मी तुम्हाला नंतर नक्की निवांत झालो की सांगेन .

माझा मित्र म्हणाला ब्लेझर घातल्याचा नक्की फायदा होईल .मी म्हणालो चित्रकाराने , कलाकाराने सुटबुट घातला काय किंवा नाय .
चित्रातील रंग , आकार , मांडणी , अभिव्यक्ती बोलते . चांगल्या कामाला मरण नाही . तुम्ही कोणत्याही ग्राहकाला इंप्रेस करून फार टेंबा मिरवू नका तुमची कला तुमचे काम सर्व काही नजरेत सांगत असते .
        आज मुंबई आर्ट फेस्टीव्हलचा अखेरचा दिवस त्यात रविवार  त्यामुळे गॅलरीत तुफान गर्दी होती . हौसे , नवसे व गवसे सगळीच मंडळी होती त्यात आता मोबाईलमुळे चित्र बघण्यापेक्षा व्हिडीओ शुटींग करणे , चित्रांपुढे स्टाईलने उभे राहून फोटो काढणे , सेल्फी काढणे हेच उदयोग जास्त चालले होते .भरमसाठ गर्दी होती . 

पण जिथे खूप गर्दी असते तेथे दर्दी माणसे खूप कमी असतात .

       आज भोरवरून दूरचा प्रवास करून कलाशिक्षक व चित्रकार चंद्रकांत जाधव आले होते . सोलापुरातील प्रसिद्ध कलाकार सचीन खरात सहकुटूंब आले होते . काही दिवसांपूर्वीच त्यांची वाईला स्टुडीओला भेट झाली होती . आर्टबीट फौंडेशनचे संतोष पांचाळ , आर्किटेक्ट श्री .राजीव साठे , प्रा .संजय कुरवाडे सर नागपुरचे वयोवृद्ध चित्रकार रामटेकेसरांना घेऊन आले होते . आमची मैत्रिण योगिता राणे , मित्राचे भाऊ वसंत घोलप , चित्रकार मित्र दिनकर जाधव , चित्रकार उमाकांत कानडे , चित्रकार सुनील व स्नेहा जाधव [पुणे] . आमच्या संजीवन शाळेचे माजी विद्यार्थी अरुण साळी खास चित्र प्रदर्शन पाहायला खूप दूरचा प्रवास करून आले होते . आमचे कलासंग्राहक मित्र श्री . व सौ .नरेन्द्र कलापि खास दुपारचे लंच घेऊन आले . ते स्वातीला मुलीसमान मानतात . त्यांची मिसेस स्वातीवर आईच्या मायेची पाखरण करते . अशी माणसे खरीखुरी " स्टॅन्डर्ड " असतात . त्यांचे प्रेम त्यांच्या कृतीतून व्यक्त होते .बोलायचीच गरज पडत नाही .
         सुप्रसिद्ध सुलेखनकार व मित्र अच्युत पालवांची भेट झाली . खूप आठवणी जाग्या करून केली त्यासाठी एक वेगळा लेख लिहावा लागेल .
अनुभवाने माणूस समृद्ध होत जातो .
        ईंडीया आर्ट फेअरच्या निमित्ताने एक अनुभव किंवा शिकवण नव्याने शिकलो . खूप माणसे आली प्रचंड गर्दी झाली तर प्रदर्शन सक्सेस होत नाही त्यासाठी समज असणारी , जाणकार , रसिक माणसे थोडीच म्हणजे हाताच्या बोटावर मोजण्या इतकीच असतात . 

आणि तीच माणसे खरी " स्टॅन्डर्ड " असतात .

आज प्रदर्शनाचा शेवटचा दिवस आहे .
जरूर भेट द्या🙏

व्हॅलीज ॲन्ड फ्लॉवर्स
नेहरु सेंटर आर्ट गॅलरी
वरळी , मुंबई .

✍️सुनील काळे [ चित्रकार]9423966486

स्टॅन्डर्ड - मायानगरी मुंबईचे अनुभव

स्टॅन्डर्ड
🌟🌟
मायानगरी मुंबईचे अनुभव
🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟
         मागच्या वर्षी प्रदर्शनाच्या वेळी मी पार्ल्याला गेलो होतो .कारण तेथे  अष्टपैलू चित्रकार , लेखक , कार्टूनिस्ट , गायक , मिमिक्रीकार , कलाशिक्षक असे बहुगुण संपन्न असणारे सी एस पंत [ चंद्रशेखर पंत] नावाच्या आमच्या मित्राने खास घरी येण्याचे निमंत्रण दिले होते . 
      चंद्रशेखर पंताचे व्यक्तीमत्व अतिशय प्रभावी आहे . झाकीर हुसेनसारखे लांब केस , मोठा काळ्या रंगाचा फ्रेमचा चष्मा , आणि कानाशेजारी खूप लांब मोठे कल्ले . त्यात आता वयामुळे केस पांढरे झालेले त्यात ते नेहमी झब्बा घालतात त्यामुळे त्यांना पाहताच हा माणूस ' कल्लाकार ' आहे हे लगेच लक्षात येते . मी मात्र साधा राहायचो . माझी पर्सनालाटी दाढी घोटून फक्त मिशा ठेवल्याने चित्रकार सोडा फार तर काय , धड कारकूनही मी शोभायचो नाही . एखाद्या कंपनीचा अंकौटंट वाटायचो . मग आपला काहीतरी बदल करून कायापालट करायचा मी ठरवले . मग दाढी वाढवली . पण माझ्या दाढीचे केस राठ असल्याने चेहऱ्यावर काटेरी गवत उगवल्याचा मलाच भास व्हायला लागला . मग मी सगळे आर्टिस्ट ठेवतात तशी बुल्गानीन दाढी ठेवली तर ओठांच्या खाली हनुवटीच्या भागावर सगळ्या भागात केसच उगवायचे नाहीत मग दोन्ही साईडला कट मारला व आताची स्टाईल केली . मग मी जरा थोडा चित्रकार दिसावा म्हणून अनेक कप्यांचे फोटोग्राफरचे जॅकेट घालायला लागलो . केस रंगवायचे पुर्ण सोडून दिले . आता मी चित्रकार दिसू लागलो . पण नुसता चित्रकार दिसून काय फायदा ? कारण चेहऱ्याने मी सुमार व्यक्तीमत्वाचा असल्याने गरीब बावळटच वाटायचो , माझी चित्रं  विकायची असतील तर जरा भारदस्तपणा वाटायचा नाही . मग एकदा पुण्याला गेलो होतो त्यावेळी अभिनव कॉलेजच्या समोर सिलाई नावाच्या दुकानातून एक जीन्सचा ब्लेझर घेऊन ठेवला . प्रदर्शनात शाईनिंग मारायला उपयोगी पडेल म्हणून आणि आता तो मी सात दिवस घालतोय .
         आता हे सगळे व्यक्तिमत्व विकासाचे पुराण का सांगतोय ? तर सविस्तर किस्साच सांगतो .
         2004 साली आमचे नेहरू सेंटरलाच प्रदर्शन होते . माणसे यायची व जायची . कोणी टाईबुट घालणारा , कोणी फॉरेनर , कोणी पारशासारखा दिसणारा , कोणी भारदस्त व्यक्तिमत्त्वाचा , कोणी गोऱ्यापान बॉबकटवाल्या स्टाईलीश लिपस्टीक लावलेल्या उच्चभ्रू बायका , किंवा ऑफीसला जाताना अपटूडेट माणूस दिसला की आम्हाला वाटायचे क्लाएंट आला , हा माणूस स्टॅन्डर्ड दिसतोय म्हणजे चित्र घेणार असे वाटायचे . आम्ही लगेच छापलेले ब्रोशर घेऊन त्याला प्रभावित करण्यासाठी ॲटेन्ड करायला धावायचो पण बऱ्याचदा तो फुसका बार निघायचा . एखादा साधा माणूस दिसला की आम्ही दुर्लक्ष करायचो . कारण चित्राच्या किमती त्याला परवडतील असे वाटायचे नाही .
           त्या प्रदर्शनात एक साधा बुशशर्ट , पायात साधी बाटाची ब्राऊन कलरची सॅन्डल व पँट घातलेली व्यक्ती आली त्याच्याबरोबर एक जाडा माणूस सोबत होता . मी त्याला ॲटेन्ड करायला उठलोच नाही . हा काय चित्र घेणार ? हा विचार मनात येऊन मी न्यूजपेपर वाचत बसलो . ते गृहस्थ शांतपणे गॅलरीत प्रत्येक चित्र पहात होते . मी निवांत बसलो होतो इतक्यात सद्गृहस्थ माझ्याकडे आले व शांतपणे म्हणाले एक्स्कूज मी , मला ह्या एका भिंतीवर लावलेली सगळी चौदा चित्र घ्यायची आहेत . कॅन यू बुक फॉर मी .
          मी त्यांच्या चेहऱ्याकडे पहात म्हणालो यु वॉन्ट फोरटीन पेंटींग्ज ? एकदम चौदा चित्र मागतोय म्हणजे काय आपली गंमत करतोय का काय ? कदाचित टाईमपाससाठी हा माणूस आला असणार . मी म्हणालो ही प्राईजलिस्ट घ्या त्याच्या किंमती बघा व त्यानंतर ठरवा . तर हे गृहस्थ म्हणाले नो प्रोब्लेम फॉर मी , व्हाटेवेअर प्राईज इज देअर आय एम रेडी टू पे . 
आता मी चक्रावलो . 
मग त्यानां सांगितले ही चौदा चित्रे घेतलीत तर एक मोठी अमाऊंट होईल प्लीज चेक द प्राइजेस . 
तर गृहस्थ म्हणाले आय टोन्ड हॅव एनी प्रॉब्लेम . मग मीच कॅल्क्युलेशन करून सांगितले या चौदा चित्रांची तीन लाख चाळीस हजार एवढी मोठी अमाऊंट आहे . तुम्हाला परवडेल का ? तर म्हणाले ओके , नो प्रोब्लेम , पुट रेड टॅग ऑन द पेंटींग्ज . 
आता माझे डोके विचित्र अनुभवाने गरागरा फिरू लागले .
 
मग मी त्यांना सांगितले मी मुंबईत राहत नाही . मी व माझी पत्नी स्वाती दोघेही पाचगणीला राहतो जर तुम्ही चित्रे बुक करत असाल तर तुम्हाला थोडे पैसे ॲडव्हान्स द्यावे लागतील . कारण तुम्ही चित्रे घ्यायला आला नाहीत तर आमचे नुकसान होईल . मग सदगृहस्थ गालात छान हसले , ओके नाऊ आय अंडरस्टुड युवर प्रॉब्लेम . आणि मग त्यांनी शेजारी उभ्या असलेल्या माणसाला काहीतरी कानात सांगितले . तो माणूस बाहेर गेला व दोनच मिनिटात प्लास्टीकच्या बॅगेत संपूर्ण रक्कम रोख घेऊन आला . सदगृहस्थानी सगळी रक्कम टेबलवर ठेवली व सांगितले आता आशा करतो की तुझे सर्व प्रश्न संपले असतील .
 मी तर भारावलेल्या अवस्थेत त्या नोटांच्या बंडलाकडे  दोन मिनिटे बघतच राहीलो . काय सुधरेनाच . इतके पैसे एकावेळी बघायची सवयच नव्हती . त्यावेळी ज्या सेंट पीटर्स शाळेत कलाशिक्षक म्हणून नोकरी करायचो . तेथे माझा दर महिन्याचा पगार सात हजार सातशे होता त्यात कंटींग होऊन जो पगार मिळायचा त्यात महिना भागवायला लागायचा . माझ्या मनात असंख्य विचार येत होते . मी जणू ट्रान्समध्ये वेगळ्या स्वप्नातच विहार करत गेलो होतो . हे सत्य आहे का स्वप्नात आहोत असे क्षणभर वाटले .
त्या सदगृहस्थानी मला स्वप्नातून भानावर आणले .
प्लीज पॅक द पेटींग्ज ,आय विल टेकिंग एव्हरीथिंग टुडे ओन्ली .
मग चित्रांचे पॅकिंग करताना मी त्यांना विचारले आपण काय करता ?
तर म्हणाले एक कंपनी चालवतो .
कसली कंपनी ? नाव काय कंपनीचे ?
मग सद्गृहस्थ म्हणाले  'अंबूजा सिमेंट ' .
मी आश्चर्याने विचारले वो टिव्ही पे ॲड आती है विराट स्ट्रेन्थ , छोटा हत्ती , अंबूजा सिंमेटकी दिवार टुटेगी नही भाई वो वाली अंबूजा सिमेंट  .
मग सदगृहस्थ खूष झाले म्हणाले हा वही अंबूजा सिंमेट . 
आय एम मॅनेजिंग डायरेक्टर ऑफ अम्बूजा सिमेंट मिस्टर नरोत्तम सेकसारीया .
       नरोत्तमभाईंचा हा सरळसाधेपणा पाहून मी थक्कच झालो .
       आम्ही माणसांची पारख कपड्यावरून , त्याच्या गाडीकडे पाहून , त्याच्या घराकडे पाहून , त्याच्या राहणीमानावरून करतो व लगेच अनुमान काढतो . गरीब ,सामान्य परिस्थितीतला मित्र , नातेवाईक , पाहूणा असला की दुर्लक्ष करतो . खोटा दिखावा तर खूप करतो . जो मी आहे तसा न दाखवता खोटेपणाची झूल पांघरून मी बघा किती 
" स्टॅन्डर्ड " माणूस आहे उच्च रहाणीमानाचा उच्चभ्रू आहे हे दाखवण्याचा प्रयत्न करतो . पण जी माणसे खरी असतात ती वेगळी असतात .त्यानां दिखावा करायची कधी गरज पडत नाही कारण ती विराट स्ट्रेन्थ  असलेली भरभक्कम मजबुतीची अंबुजा सिमेंटसारखी असतात .
         मी व स्वातीने त्यांची सर्व पेंटीग्जची व्यवस्थित नीट पॅकिंग केली व त्यांच्या गाडीत ठेवली . पाचगणी वाईसारख्या छोट्या गावातून एक तरुण जोडपे फक्त पेंटींग्ज करून जगते व सर्वांनां चित्रातून आनंद देते हे ऐकून त्यांनी आमचे कौतुक केले . दुसऱ्या दिवशी त्यांच्या घरी खास जेवणाचे आमंत्रण दिले . आमच्यासाठी खास पर्सनल सेक्रेटरी गाडी घेऊन पाठवली . 
मेकर्स टॉवर्सच्याजवळ ती इमारत होती . कफ परेडसारख्या एरियात सर्वात महाग जागेतील ती संपूर्ण इमारतच त्यांच्या मालकीची होती . घरातच डायरेक्ट लिफ्ट होती . त्या घरात भारतातील सर्वात प्रसिद्ध असलेल्या  सर्व मान्यवर चित्रकारांची चित्रे होती . ती सर्व चित्र आम्हाला त्यांनी फिरून दाखवली . घरात साधा सफेत कुर्ता पायजमा स्लीपर घातलेले नरोत्तमभाई मला खूप मोठी शिकवण देऊन गेले . 
माणसे साधी  दिसतात म्हणून दुर्लक्ष करायचे नाही . ते माणसे जशी असतील तशी स्विकारायची .त्यांची कपडे साधी असतात म्हणून किंवा त्यांचे राहणीमान पाहून त्यांनां कधीच दूर लोटू नये . सर्वांनां सन्मानाने वागवावे . 
त्यादिवशी त्यांनी आणखी पन्नास हजार रुपये स्वातीच्या हातात देत म्हणाले खूप आनंद झाला मला तुमची चित्रं पाहून , या आनंदाची किमंत म्हणून हे पैसे देत आहे . आम्ही अर्थात नकार दिला . मग म्हणाले ठिक आहे तुम्ही पैसे घेत नाही तर माझ्यासाठी एक मोठे चार फूट बाय सहाफुटाचे वेळ मिळाला की सुर्यफुलांचे पेंटींग करा . स्वातीने ते पेंटींग करून दिले अशी खरी माणसे त्यांचे खरे  " स्टॅन्डर्ड " दर्शवतात .
          तो दिवस आज पुन्हा आठवला .
आज अशीच एक वयस्कर साधी कपडे घातलेली मराठी व्यक्ती गॅलरीत आली होती . त्यांच्या तर हाताच्या शर्टची बटनेपण लावलेली नव्हती . 
पण आता मला शहाणपणाचा अनुभव होता . अनुभव खूप शिकवतो .
 मी लगेच उठून त्यांचे स्वागत केले . त्यानां सोबत घेऊन सर्व चित्रे दाखवली तर आम्ही वाईचे आहोत हे ऐकून खूष झाले . म्हणाले आहो आम्हीपण पूर्वी वाईचे होतो . गोखले , रास्ते यांच्या घरातले . वाईच्या महागणपती मंदिराचा मी ट्रस्टी आहे . मग हातात हात घेऊन सगळीकडे फिरले .भरपूर फोटो काढा म्हणाले . शेवटी सगळी चित्रे बघून एक सर्वात उत्तम चित्र त्यांनी पसंद केले मला हे चित्र खूप आवडले म्हणत बऱ्यापैकी घासाघीस करून म्हणाले अहो चित्रातले मला काय कळत नाही .आपला थोडा थोडा संग्रह करत असतो . 
      मग पैसे देण्याची वेळ आली तर म्हणाले मला गुगल पे ,ऑन लाईन पेमेंट काय कळत नाय वो . मग मी म्हणालो ATM ने पैसे दया ,तर म्हणाले अहो माझ्याकडे कार्डबिर्ड काहीच नाही . मी आपला साधा माणूस .मग सर्वात शेवटी चेकने पैसे देतो म्हणाले .ड्रायव्हरजवळ चेक पाठवून देतो तोपर्यंत पेंटिंग पॅक करून ठेवा आमचा निरोप घेऊन घेऊन बाहेर चालत हळूहळू निघून गेले .
पाच मिनिटांनी ड्रायव्हर चेक घेऊन आला . 
हातात एक व्हिजिटिंग कार्ड दिले . 
त्या कार्डावर लिहिले होते . 
पार्टनर - वामन हरी पेठे ज्वेलर्स .
ड्रायव्हरला म्हणालो पेंटींगची साईज जरा मोठी आहे , गाडीत बसेल का ?
तर म्हणाला का नाही बसणार ? लई मोठ्ठी BMW आणली आहे .

        समर्थ रामदासांनी सांगितलेच आहे की, 'वेष असावा बावळा। परि अंतरी नाना कळा। तुमचा रुबाबदार पोशाख लोकांच्या मनावर काही काळ छाप पाडू शकेल, पण तुमच्या अंगी काहीच कार्य- कौशल्य नसेल वर तुमचे रुबाबदार कपडे कवडीमोलाचे ठरतात. मात्र, तुमच्याकडे विविध कला असल्या तर तुमच्या अंगावरच्या फाटक्या कपड्यांकडे कोणीही पाहणार नाही. तुमच्या कलांचेच कौतुक केले जाते व गोडवे गाईले जातील . गाडगेबाबांच्या अंगावर कायम फाटके कपडे असायचे, पण त्यांच्या कीर्तनाला असंख्य लोक जमायचे. रस्त्यावर एखादे सुंदर चित्र काढणारा फाटक्या कपड्यांत असला तरी लोक त्याच्याकडे पाहत नाहीत. त्याच्या चित्राची वाहवा करून त्याला बक्षिसी देतात. उघड्या अंगाने खेळ करणान्या डोंबाऱ्याचा खेळ पाहायलाही गर्दी होते. का? तर त्याच्या अंगी असलेल्या नाना कळा आपणांस मोहवतात.​

आता तर मी कपड्यावरून कधीच कोणाचे स्टॅन्डर्ड ठरवत नाही . पण अशा शाळेतील भारी स्टॅन्डर्डची एक भारी गोष्ट मी तुम्हाला नंतर नक्की निवांत झालो की सांगेन .

माझा मित्र म्हणाला ब्लेझर घातल्याचा नक्की फायदा होईल .मी म्हणालो चित्रकाराने , कलाकाराने सुटबुट घातला काय किंवा नाय .
चित्रातील रंग , आकार , मांडणी , अभिव्यक्ती बोलते . चांगल्या कामाला मरण नाही . तुम्ही कोणत्याही ग्राहकाला इंप्रेस करून फार टेंबा मिरवू नका तुमची कला तुमचे काम सर्व काही नजरेत सांगत असते .
        आज मुंबई आर्ट फेस्टीव्हलचा अखेरचा दिवस त्यात रविवार  त्यामुळे गॅलरीत तुफान गर्दी होती . हौसे , नवसे व गवसे सगळीच मंडळी होती त्यात आता मोबाईलमुळे चित्र बघण्यापेक्षा व्हिडीओ शुटींग करणे , चित्रांपुढे स्टाईलने उभे राहून फोटो काढणे , सेल्फी काढणे हेच उदयोग जास्त चालले होते .भरमसाठ गर्दी होती . 

पण जिथे खूप गर्दी असते तेथे दर्दी माणसे खूप कमी असतात .

       आज भोरवरून दूरचा प्रवास करून कलाशिक्षक व चित्रकार चंद्रकांत जाधव आले होते . सोलापुरातील प्रसिद्ध कलाकार सचीन खरात सहकुटूंब आले होते . काही दिवसांपूर्वीच त्यांची वाईला स्टुडीओला भेट झाली होती . आर्टबीट फौंडेशनचे संतोष पांचाळ , आर्किटेक्ट श्री .राजीव साठे , प्रा .संजय कुरवाडे सर नागपुरचे वयोवृद्ध चित्रकार रामटेकेसरांना घेऊन आले होते . आमची मैत्रिण योगिता राणे , मित्राचे भाऊ वसंत घोलप , चित्रकार मित्र दिनकर जाधव , चित्रकार उमाकांत कानडे , चित्रकार सुनील व स्नेहा जाधव [पुणे] . आमच्या संजीवन शाळेचे माजी विद्यार्थी अरुण साळी खास चित्र प्रदर्शन पाहायला खूप दूरचा प्रवास करून आले होते . आमचे कलासंग्राहक मित्र श्री . व सौ .नरेन्द्र कलापि खास दुपारचे लंच घेऊन आले . ते स्वातीला मुलीसमान मानतात . त्यांची मिसेस स्वातीवर आईच्या मायेची पाखरण करते . अशी माणसे खरीखुरी " स्टॅन्डर्ड " असतात . त्यांचे प्रेम त्यांच्या कृतीतून व्यक्त होते .बोलायचीच गरज पडत नाही .
         सुप्रसिद्ध सुलेखनकार व मित्र अच्युत पालवांची भेट झाली . खूप आठवणी जाग्या करून केली त्यासाठी एक वेगळा लेख लिहावा लागेल .
अनुभवाने माणूस समृद्ध होत जातो .
        ईंडीया आर्ट फेअरच्या निमित्ताने एक अनुभव किंवा शिकवण नव्याने शिकलो . खूप माणसे आली प्रचंड गर्दी झाली तर प्रदर्शन सक्सेस होत नाही त्यासाठी समज असणारी , जाणकार , रसिक माणसे थोडीच म्हणजे हाताच्या बोटावर मोजण्या इतकीच असतात . 

आणि तीच माणसे खरी " स्टॅन्डर्ड " असतात .

आज प्रदर्शनाचा शेवटचा दिवस आहे .
जरूर भेट द्या🙏

व्हॅलीज ॲन्ड फ्लॉवर्स
नेहरु सेंटर आर्ट गॅलरी
वरळी , मुंबई .

✍️सुनील काळे [ चित्रकार]9423966486

रहिमानी किडा - पंकज खेळकर

रहिमानी किडा
🌟🌟🌟🌟🌟
          2018 साली फेब्रुवारी महिन्यात आम्ही 1992 सालच्या अभिनव कला महाविद्यालयातील बॅचची सर्व मित्रमंडळी ठरवून सगळे पुण्यात भांडारकर रोडच्या हॉटेलमध्ये मिलिंद फडके सर व धनंजय सस्तकर सरांच्याबरोबर भेटलो होतो . खूप छान वाटले आणि बऱ्याच वर्षानंतर सर्वानां भेटून खूप मजा आली . आमचे अनुभव शेअर केले , जुन्या आठवणी जाग्या केल्या, एकमेकांना जाणून घेतले व भरपूर गप्पा झाल्या त्यानंतर ग्रूपचा एकत्र फोटो काढून झाला . सर्वात शेवटी जेवणाचा कार्यक्रम सुरू झाला .
          एका कोपऱ्यात मी आणि पंकज  खेळकर  नावाचा आमचा पत्रकार , रिपोर्टर मित्र जेवण करताना गप्पा मारत होतो .पंकज कमर्शियल आर्टचे , चित्रकलेचे शिक्षण घेऊनही  आजतक सारख्या वाहीन्यांमध्ये ऑन द स्पॉट जावून रिपोर्टिंग  करतो . त्याने केलेली कामे तो आमच्या ग्रूपवर लिंक पाठवायचा . त्या लिंकमुळे मी त्याला  कधीतरी  टिव्हीवर पहात असतो . मला खूप कौतुक वाटत असे त्याच्या या अनोख्या व्यावसायाचे व उत्साहाचे . मी त्याला गंभीरपणे विचारले पंकज, या आजतक  सारख्या वाहिन्यांमध्ये जे वार्ताहर असतात त्यानां काय क्वालीफिकेशन लागते ?  
असंख्य विषयांत तुम्ही तज्ञ पारंगत असल्यासारखे  प्रश्न कसे विचारत असता ? त्यासाठी काय काय तयारी करावी लागते ?
 हे सगळं नाट्य तुम्ही चित्रित कधी करता ? 
घडणारा जिवंत प्रसंग तुम्ही लगेच टिव्हीवर दाखवताना तुमची मनःस्थिती कशी असते ? 
प्रत्येक घटना नवी मग त्यावेळी नव नवे प्रश्न कसे सुचतात ?
        पंकजने शांतपणे व गंभीरपणे मोठा .........पॉझ घेऊन सांगितले .
हो क्वालीफिकेशन लागते, 
फार म्हणजे फार मोठे क्वालीफिकेशन लागते ,
त्याचे नाव आहे.......... " रहिमानी किडा " . 
पत्रकारांकडे मनात प्रभावी रहिमानी किडा असावा लागतो .
मी जरा आश्चर्याने  विचारले म्हणजे ? 
हे कसलं नवीन क्वालीफिकेशन ?  
             मग पंकजने सविस्तर सांगितले, त्याचं असं आहे...की आपणाला कोणत्याही गोष्टीत प्राविण्य मिळवायचं असेल तर रहिमानी किडा माणसात असावाच लागतो . तो जितका जास्त डोक्यात वळवळणार तितका तो जास्त प्रयत्न करत राहणार , आणि मग हा रहिमानी किडा त्या व्यक्तीला  समृद्धी व भरीव यशप्राप्ती  करून देणार . मला फोटो, व्हिडीओ शुटींग करायची आवड आहे व कोठेही काय चाललयं , काय घडतंय याचा शोध, तपास घेण्याची सवय आहे . त्यामूळेच मी आज तक मध्ये काम करतो . समाजात जे काही नवीन घटना , पडसाद, सकारात्मक नकारात्मक गोष्टी, घडतात त्या वेळी मी गप्प बसूच शकत नाही ते लोकांपर्यंत पोहचवण्याचा मला ध्यासच लागतो . हा रहिमानी किडा मला गप्प बसूच देत नाही .
      पंकज बरोबर गप्पा मारताना मला कॉलेजचे दिवस आठवू लागले . त्याचे फोटो, शुटींग, त्याचा ध्यास पाहील्यानंतर मला आता हळू हळू समजू लागलं त्याचा  हे रहीमानी किडा प्रकरण काय आहे ते . हा किडा त्याच्याकडे पूर्वीपासूनच होता . त्याने तो जाणीवपूर्वक वाढविला ,  मोठा केला .त्यामूळेच त्याचे जीवन इतके छान, व्यस्ततेत असायचे आणि आनंदी मनाने तो  त्या कार्यामध्ये सतत कार्यमग्न असायचा.                
         आपल्या सर्व जणांमध्ये असा रहीमानी किडा असतो, तो डोक्यात अनेक वेळा वळवळतो पण आपण त्याची वाढ नीट करत नाही. त्याच्याकडे दुर्लक्ष करतो. काही जण तर भलत्याच विध्वंसक पद्धतीने त्याला वळण देतात व निराशेच्या गर्ततेत अडकून पडतात . काही जण दुसऱ्याची वाट लावण्यासाठी त्याचा वापर करतात .पण ह्या किड्याची सकारात्मक पद्धतीने वाढ केली की नवीन गोष्टी, नवी क्षितिजे , नवे प्रकल्प , नवा उन्मेष, सातत्याने आपल्याला उर्जा देणारा व  प्रेरणादायी ठरतो , सर्वानां त्यांच्या कार्यात यश प्राप्त करून देतो . पण त्यासाठी मनःपूर्वक वैचारीक, प्रामाणिक तयारी व इच्छाशक्ती हवी .
         पंकजचा हा रहिमानी किडा मला फार आवडला .काही दिवसांपूर्वी एका कलाक्षेत्रातील मित्राला सांगितला .  तुम्ही कोणत्याही क्षेत्रात असा ,जर तुमच्यात हा प्रामाणिक कष्ट करण्याचा किडा असेल तर, त्याला जोपासा, तुम्ही तुमच्या क्षेत्रात नक्कीच यशस्वी व्हाल . त्यासाठी मग अगदी जीवाचे अकांड तांडव करा , त्याच्या सर्व अंगाचा, सर्व बाजूंनी सर्वकष शोध घ्या , संशोधकासारखे अगदी बारीक नगण्य गोष्टी ते संपूर्ण भव्य अवकाश शोधून, पिंजून काढा . सर्वोत्तमातले सर्वोत्तम सर्व शक्तीनीशी जाणीव पूर्वक मांडण्याचा ध्यास घ्या , समाधान होत नाही तोपर्यंत अविश्रांत प्रयत्न करत रहा. हार मानू नका .
         चित्र किंवा शिल्प करत असाल तर डोळ्यांनी पाहणाऱ्या व्यक्तीला अविस्मरणीय अदभूत , अचंबित करणारे , रोमारोमांला भिनवून टाकणारे , विचार करायला लावणारे चित्र  / शिल्प काढा . मग ते कोणत्याही माध्यमात, कोणत्याही साईजचे , कोणत्याही शैलीचे असो , चित्र पाहील्यानंतर त्यातील रंग , रेषा आकार व दृश्यानुभव यांनी पाहणारा माणूस अद्वितीय आनंदाने फुलून गेला पाहिजे, त्यामध्ये तो गुंतून गेला पाहीजे , स्वतःला विसरून गेला पाहीजे .
         गायन, वादन, नर्तन, नाटय, संगीत, लेखन, क्रिडा वा इतर कोणत्याही आवडीच्या क्षेत्रात असा , तुम्ही हे सर्व मनाच्या गाभाऱ्यातून श्रध्दापूर्वक स्वत:लाच शरण जावून करणार असाल तर समोरचा प्रेक्षक प्रभावित होईलच . त्या अगोदर तुम्ही सर्वांगाने प्रभावित असले पाहीजे , तुम्ही त्या क्षेत्राचा कसून पुर्णपणे अभ्यास केलेला असला पाहीजे .तेथे मोठेपणाची, अतिज्ञानाची ,अहंपणाची, अविश्वासाची झुल बाजूला ठेवावी लागते . सर्व काही फक्त आपल्यालाच समजते हा गैरसमज काढून टाकावा लागतो . स्वअहंकारांसारख्या गोष्टी  बाहेर काढून शरणागती पत्करावी लागते. स्वतःच स्वतःला सरेंडर करावे लागते . शुद्ध व्हावे लागते .फार कठीण आणि अवघड असते असे स्वतःला झुल फेकून देऊन जगण्यासाठी तयार व्हायला . पण ते जाणीवपूर्वक बदल केल्यास शक्य असते .
         तुम्ही कोणत्याही वयाचे असा, कोणत्याही आर्थिक, सामाजिक  स्थितीत असा , कोणत्याही ज्ञात ,अज्ञात ठिकाणी असा, असे स्वतःला विसरून प्रयत्न केले की यश मिळणारच. आणि ज्यांनी हा प्रयत्न केला तो त्यांच्या माध्यमातून , शब्दांतून , गाण्यातून, आचरणातून, कृतीतून व्यक्त होतोच , समोरच्या व्यक्तीला आनंदयात्रा करुन आणतो .
        असा रहिमानी किडा तुमच्या डोक्यात कार्यरत असला तर तुम्हाला  गप्प बसू देणार नाही . सतत सुप्त विचारानां प्रेरित करत राहणार, यश प्राप्ती व चिरंतन आनंद देणार . 
         काही रहिमानी किडे वेगवेगळ्या प्रकारच्या कार्यात मग्न असतात . ते विद्वेश पसरवतात, समाजात, माणसात, जातीधर्माच्या, उच्च नीचतेच्या , अनितीच्या मार्गाने विचार करतात . अशा किड्यानां डोक्यात कधीही वळूवळू दयायचे नाही त्यानां डोक्यातून हाकलून दयायचे . अशा लोकांच्या रहिमानी किडयांपासून सावध राहायचे. त्यांची अदृश्य चाल वेळीच ओळखायची.
         सर्वामध्ये या अशा चांगल्या, सृजनशील , सुविचारी असलेल्या  अदृश्य रहिमानी किडयाची  आणखी खूप जोमाने वाढ व्हावी , त्याला  उत्तम खतपाणी मिळावे, निराशेची चादर दूर जावी .आपआपल्या  आवडीच्या क्षेत्रात प्रगतीची दिशा, नव्या चेतना मिळाव्यात  यश मिळावे यासाठी खूप खूप शुभेच्छा !  पंकजचे हे शब्द लक्षात ठेवण्यासारखे होते .शेवटी या रहिमानी किडयाचा सारांश काय तर आपल्या मनात जे प्रचंड आवडणारे अव्यक्त साचलेलं आहे त्याला वाट करून द्यायची . आपण नेहमी स्वतःला व्यक्त करत राहायचं . 
        2018 सालातील फेब्रुवारीत मारलेल्या या पंकज खेळकरबरोबरच्या गप्पा आता यापुढेही माझ्या मनात , हृदयात कायम लक्षात राहतील .
        काही वर्षांपूर्वी वाईतील काही दुष्ट मंडळीनी आमच्या त्यावेळी रहात असलेल्या घरावर हल्ला करून सामान बाहेर फेकून दिले . अतिशय वाईट प्रसंग होता .  पकंजला संपर्क केला त्यावेळी तो खूप दूरवर शुटींगमध्ये व्यस्त होता . त्याने इम्तिहाज मुजावर नावाच्या मित्राला आमची घटना सांगितली व त्याला तातडीने संपर्क करावयास सांगितले .सतर्कता , चपळता , अवधान तत्परता , व संपर्कात राहणे हे पकंजचे गुण मला त्यावेळी जाणवले .
          अमीर आणि किरणरावचे लग्न पाचगणीत होते . आजतकतर्फे बातमी कव्हर करायला पंकज आला होता . त्याची धावाधाव करणारी ऑन दी स्पॉट कार्यप्रणाली त्यावेळी मी प्रत्यक्ष पाहिली होती .
          वाहिन्यांचे प्रतिनिधी भरपूर असतात पण पंकजसारखी सर्वस्व झोकून देऊन काम करणारी मंडळी मात्र मला कायम लक्षात राहतात .

पंकजसारखे मित्र नेहमी आठवत राहतील जे पक्के रहिमानी आहेत .

         कॅमेऱ्यामन ......... साथ आजतक के लिए मै पंकज खेलकर हा आवाज आता परत येणार नाही . कारण दिनांक 11 मार्च 2024 च्या रात्री साडेनऊ दहाच्या सुमारास हा आमचा मित्र हार्टॲटकमुळे दुसऱ्या दुनियेत गेला . तेथेही तो इतक्या तत्परतेने गेला की त्याची बातमी सर्वदूर पसरली असेल . तेथील चॅनेलवर तो आता नवनव्या बातम्या कव्हर करत असेल . कारण त्याच्या मनामनात , रोमारोमांत , सर्व शरीरभर रहिमानी किडा पसरलेला होता . तो त्याला कधीच स्वस्थ बसून देणार नाही .
         मै पंकज खेलकर आज तक से . . . . . . हा आवाज आता पुन्हा कधी आजतक चॅनेलवर ऐकता येणार नाही . अशी तरुण मित्रमंडळी साठीच्या आतील व्यक्तिमत्वे हरवली की हृदय फाटते , हृदयाला न भरून येणाऱ्या जखमा होतात .

पकंज तुला भावपूर्ण श्रध्दांजली !🙏🙏

सुनील काळे✍️ 
(9423966486)

सुंबरान - चित्रकारांचे स्वप्नातील घर

सुंबरान -  चित्रकारांचे स्वप्नातील घर
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           खूप वर्षांपूर्वी म्हणजे करेक्ट आठवून वर्ष सांगायचं तर १९९९ साली मी पाचगणीच्या बिलिमोरीया स्कूलमध्ये कलाशिक्षक म्हणून काम करत होतो . ओरिजनल पारशी मालकमंडळी जाऊन ही शाळा गोराडीया मॅनेजमेंटकडे आली म्हणजे त्यांनी विकत घेतली होती . मी आणि स्वाती शाळेच्या परिसरात एका दहा बाय पंधराच्या खोलीत रहात होतो नाईलाज होता .कारण आयुष्याची वाईट वाट लागली होती . खूप निराशा मनात साचलेली होती . आमची एकुलती एक मुलगी डॉक्टरांच्या चुकीच्या उपचारामुळे मरण पावली होती व आम्हाला परत नालासोपारा येथे स्वतःचे घर असूनही परत जायचे नव्हते . या शाळेच्या खोलीत बाथरूम , किचन , अटॅच्ड टॉयलेट , कपाट, फर्निचर काहीच नव्हते . फक्त एक रिकामी दोन लोखंडी पलंग असलेली खोली . बाथरूम अंघोळीसाठी इमारतीला वळसा घालून लाकडी जिन्याच्या पायऱ्या चढून दुसऱ्या मजल्यावर मुले सकाळी उठण्या अगोदर पहाटे पाच वाजता प्रचंड थंडी गारठ्यात उठून कॉमन बाथरूम वापरायला लागायची . शाळेच्या मालकांची अक्राळव्रिकाळ अल्सेशियन दोन कुत्री रात्री मोकाट सोडलेली असायची . अशावेळी भर पावसात कुडकुडत रात्री टॉयलेटला जायचे म्हणजे एक संकट वाटायचे . मग एक स्वप्नातील स्वतःचे हक्काचे घर असावे असे सतत वाटायचे. सतत अस्वस्थ वाटायचे .आपल्या डोक्यावर हक्काचे स्वतःचे छप्पर नसेल त्यावेळी समोर आलेली हलाखीची सर्व परिस्थिती स्विकारावी लागते .
           त्यावेळी 1999 च्या सुमारास रोहन बिल्डर्स पुणे यांनी एक चित्रकलेची स्पर्धा आयोजित केली होती . त्या स्पर्धेचा विषय होता 
" माझ्या स्वप्नातील घर " आणि त्याचे बक्षिस होते पाच हजार रुपये . मग आम्ही दोघे स्वप्नातील घर कसे असावे याचा विचार करून सतत चित्र रेखाटने काढायचो .  स्वप्नातील घर कसे असावे , याची सतत स्वप्ने पाहायचो . मग अनेक रेखाटने करून फुल साईज  माऊंटबोर्डवर एकदाचे फायनल चित्र काढून स्पर्धेसाठी पाठवले . आणि विशेष म्हणजे त्यावेळी महाराष्ट्रातील अनेक चित्रकारांनी त्या स्पर्धेत भाग घेतला होता . आम्हा दोघांनाही या स्पर्धेत पारितोषक मिळाले . बक्षिस तर मिळाले पण ....... प्रत्यक्ष स्वप्नातील घर मिळविण्यासाठी पुढे अनेक वर्ष जावी लागली .
           प्रत्येक माणसाचे व त्याच्या कुटूंबाचे एक स्वप्न असते , आपले स्वतःचे एक घर असावे .
तो माणूस त्या स्वप्नांतील घर पुर्ण करण्याचा अटोकाट प्रयत्न करत असतो . काहींची स्वप्ने लवकर पुर्ण होतात तर काही जणांच्या प्रयत्नाला लगेच यश मिळत नाही . नियती रुसून बसते आणि नशीब देखील साथ देत नाही . प्रयत्नांची शिकस्त करूनही घराची स्वप्नपूर्ती होत नाही . आणि त्यात एखादा कलावंत किंवा चित्रकार असेल तर त्या माणसांचे स्वप्नातील घराचे स्वप्न मोठे रोमांचक जरा भारी भारी कल्पनांनी व्यापलेले असते . आणि या कल्पना प्रत्यक्ष उतरविण्यासाठी मोठी जिद्द , चिकाटी, सतत प्रयत्नांची शिकस्त , व आर्थिक पाठबळही असावे लागते . माझे स्वप्नातील घर पुर्ण करण्याच्या ध्यासामुळे पुढे मी कधी बाहेर निवांतपणे फिरायला गेलोच नाही .
          आज खूप वर्षांनी एका स्वनातील घराला भेटायचा योग आला कारण मी जे स्वप्नातील घर पाहीले त्याच्यापेक्षाही ही घराची प्रत्यक्ष कलाकृती खूप खूप सुंदर आहे त्या घराचे नाव आहे 
" सुंबरान " .
         सुंबरानचे स्वप्न पाहीले ते प्रा .रावसाहेब गुरव सरांनी . ते आम्ही जिथे शिकलो त्या अभिनव कला महाविद्यालयात अनेक वर्ष प्राध्यापक होते आणि नंतर तेथे प्राचार्य म्हणून रिटायर्ड झाले . निवृत्त झाल्यानंतर माणसे मनाने आणि शरीरानेही थोडे थकतात . कारण बराच काळ मोठी नोकरी केल्यानंतर विसावा, शांततेची गरज असते . त्या घराचा निर्मितीचा प्रवास ऐकण्याची खरं तर त्याच्या मालकाकडूनच खूप मोठी इच्छा होती म्हणून सकाळीच प्रा . रावसाहेब गुरव सरानां फोन केला परंतू मुंबईला जहाँगीर आर्ट गॅलरीत चाललेल्या एका प्रदर्शनासाठी ते मुंबईला प्रवास करत होते . परंतु त्यांनी मला नाराज केले नाही .तु सुंबरानला जा तेथे केअरटेकर सर्व काही दाखवेल . असे खात्रीशीर आश्वासन मिळाल्यामूळे मी मुळशी भूगाव रस्त्याला प्रवास करू लागलो . 
            पुणे शहराचा चारी बाजूंनी इतका विकास चालला आहे की सगळीकडे उंचच उंच इमारती ,विस्कळीत झालेली वाहतुकीची कोंडी , अमाप गर्दी व नियमबाह्य बांधलेली शॉप्स , मॉल्स , टपऱ्या , दुकाने ,रस्त्यांच्या दुरावस्था पाहून हा नक्की कसला नियोजनशुन्य विकास आहे ?असा मला नेहमीच प्रश्न पडतो . त्या प्रश्नांची उत्तरे कोणाकडे असतील का ? असा विचार करत कितीतरी वर्षांनी मी हायवे पार करून अनोळखी मुळशीच्या रस्त्यावर ड्रायव्हींग करत जीपीएस लावून चाललो होतो . तो प्रवास सुरु असतानाच एक छोटासा सुंबरानचा बोर्ड उजव्या बाजूला दिसला . त्या ठिकाणी थोडा कच्चा रस्ता पार केल्यावर मी एका मोठ्या लाकडी गेट व दगडी बांधकाम असलेल्या प्रवेशद्वाराजवळ पोहचलो . आता उत्सुकता होती एका चित्रकाराचे स्वप्नातील घर पाहण्याची .
             आत प्रवेश करताच डाव्या बाजूला गेस्ट हाऊस आहे . तेथे फ्रेश झाल्यानंतर गार्डनमधला पॅलेट व ब्रशच्या आकारातील टिपॉय पाहूनच आपण चित्रकारांच्या एका वेगळ्या भूमीवर पाऊल टाकल्याची प्रचिती मिळते . या गेस्टहाऊसच्या बाहेरच्या बाजूला गणपतीची मूर्ती व बैठक आहे समोर हिरवळीचा गालीचा आहे . रात्रीची शेकोटी करून गप्पा मारण्याची सोय आहे . वेगवेगळी झाडे आहेत इथे प्रत्येक कोपरा सुनियोजित व विचारपूर्ण आहे . प्रत्येक दृश्य एक फ्रेम केलेले एक सुंदर चित्र आहे. अशा छोट्या रस्त्यातून मुख्य प्रवेशद्वारावर आल्यानंतर थक्क करणारा कारंजाचा नजारा पहाता येतो. सुंदर बुद्धाची मूर्ती व समोर वाहणारे पाणी , झाडे , पायवाट व मध्यभागी पाण्याच्या मधोमध असलेल्या गजीबोमध्ये पोहचल्यानंतर एक वेगळी अनोखी शांतता अंर्तमनात जाणवते . ह्या कारंज्यांच्या जलाशयात नारंगी रंगाचे मासे मुक्त प्रवास करत डुंबत असतात ते पाहिल्यानंतर मनाची कवाडे सताड खुली होतात व विचारांची , काळजीची वलये हवेत विरून जातात .
           या जलाशयाभोवती कोबी , कांदा , पालेभाज्याची लागवड केलेली आहेच पण सभोवताली वेगवेगळ्या  फुलांची , पानांची , नारळाची , पामची , आब्यांची झाडे लावून संपूर्ण परिसर हिरवागार केला आहे . दुपारचे बारा वाजलेले असूनही येथे उन्हाळा अजिबात जाणवत नाही .
          त्या जलाशयाच्या उजव्या बाजूला छोटे कलादालन आहे . तेथे भिंतीवर अनेक चित्रकार व कलावतांच्या कलाकृती मांडलेल्या आहेत , छोट्या आकाराची शिल्पे आहेत , हस्तकला व पेपरच्या कलाकृती आहेत . त्या गॅलरीतून समोरचा जलाशय सुंदर दिसतो .
         दगडी शहाबादी फरशीवर चालत जरा उजवीकडे गेलो की हिरव्यागार हिरवळीवर आमराई आहे . आब्यांची सुरेख झाडे आहेत . मुख्य इमारतीच्या प्रवेशद्वाराजवळ आल्यानंतर चकीत व्हायला होते . कोकणातील लाल जांभ्या चिऱ्याचा वापर करून इतकी मोठी आर्च कशी केली असेल ?  हा प्रश्न पडतो . या आर्चच्या उंच गच्चीवर लहान मुलांची शिल्प अगदी हुबेहुब केलेली आहेत . वरच्या वर्तृळाकार ब्रम्हस्थानातून पडणारा प्रकाश व त्याच्याखाली सुरेख गजाननाची मुर्ती पाहीली की आपोआप हात जोडले जातात . या हॉलवजा भिंतीवर गुरवसरांची धनगर सिरीज मध्ये केलेली पेंटीग्ज व निसर्गचित्रे लावलेली आहेत . डाव्या बाजूला आरामखुर्च्या मांडून निवांतपणे मंद प्रकाशात प्रोजेक्टर लावून मिनिथिएटर केले आहे . त्याच्या समोरच वर्तुळाकार आकारातील बैठक व चित्रकारानां निवांत बसुन कलाविषयक गप्पा मारता येतील असा सुसज्ज हॉल आहे . त्याच्या मध्यावर गोल टेबल असून त्यावर नाजूक नक्षीकाम केलेली सुरई आहे . भितींवरच्या कोनाड्यात व सर्व परिसरात सुंदर शिल्पे , सिरॅमिकची मातीची भांडी ठेवलेली आहेत . हॉलच्या एका बाजुला रावसाहेबांचा ओपन स्टुडीओ आहे . नवनवी रेखाटलेली छोटी चित्रे भिंतीवर लावलेली आहेत. लोड तक्के लावलेला मोठा झोका निवांतपणे विचारांना सतत चालना देण्यासाठी सतत प्रोत्साहन देत आहे . एका चित्रकाराने पाहिलेले भव्यदिव्य स्वप्न प्रत्यक्षात साकार करण्यासाठी किती बारकाईने काम पूर्ण करून घेतले त्या आर्कीटेक्ट श्री . माळी व चित्रकार रावसाहेब गुरव सरानां मनातून सॅल्यूट केला व निवांतपणे पायऱ्यांवर बसून राहिलो .
        दुपारची वेळ असल्याने आता पोटात भूकेची जाणीव झाली . जवळपास कोठे हॉटेल आहे का याची चौकशी करत होतो . पण सरांचा केअरटेकर भारी होता . त्यांचे नाव किशोर मालुसरे . तो महाडचा आहे . त्याने लगेच घरी  सांगून मस्त उसळ चपाती व भात आमटीचे साधे जेवण तयार केले व त्या निसर्गाच्या सान्निध्यात वसलेले भव्य चित्रकाराचे घर आणखी दिव्य वाटू लागले . मन , शरीर आणि आत्माही तृप्ततेने मनसोक्त भारावून गेला .
           स्वप्ने पाहिली पाहिजेत . स्वप्नानां पूर्ण करण्यासाठी अहोरात्र मेहनत घेतली पाहीजे . त्या स्वप्नानां फक्त आपल्या उपभोगासाठी न ठेवता सर्व चित्रकार कलावंत मित्रांनाही त्यात सामावून घेतले पाहीजे . कलाप्रेमींना कलेचा आस्वाद घेण्यासाठी घराची द्वारे सतत उघडी ठेवली पाहीजेत ही नवी प्रेरणा , नवा विचार घेऊन मी सुंबरानचा प्रेमाने निरोप घेतला .
            स्वप्नातील घर प्रत्यक्षात साकारणाऱ्या प्रा.रावसाहेब गुरव सरानां निरोगी दिर्घायुष्य मिळो , त्याच्यां हातून अजून उत्तम कलाकृती निर्माण होऊन चित्रकारानां सतत प्रेरणा मिळावी अशी ईश्वरचरणी प्रार्थना ! व खूप खूप शुभेच्छा !
           पुण्यातील व महाराष्ट्रातील अनेक कलाप्रेमी मंडळीनी सुंबरानला नक्की एकदा तरी प्रत्यक्षात व्हिजीट दिलीच पाहीजे असे मनापासून वाटते .
      कारण अशी सुंबरानसारखी कलाकेंद्रे कलावंताच्या सध्याच्या सामाजिक व राजकीय उदासीन परिस्थितीतील निराश मनाला नवी उर्जितावस्था ,चेतना , मनात सकारात्मकता जागृत करतात आणि पुन्हा नवी क्षितिजे , नवी ध्येये साकारण्यासाठी बुद्धीला प्रेरणा देतात .
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रावसाहेब गुरव (सर)
सुंबरान आर्ट फौंडेशन
मिस्टीक व्हिलेज
पौड रोड , ता . मुळशी , पौड ,पुणे
Mobile . 9822399873 . 
Phone No. : 020 -24481822
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सुनील काळे✍
9423966486

दूरदेशीची मैत्री - इल्झे विगॅन्ड =Part 2

दूरदेशीची मैत्री - पार्ट 2 🤝🤝🤝🤝🤝🤝🤝           24 नोव्हेंबरला मी वयाची अठ्ठावन्न वर्ष पूर्ण केली . मग एक विचार आला की शासकीय सेवेत काम ...