*" ग्रीन टाय "*
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मनुष्य जीवन बड़ा ही विचित्र होता है।कई अकल्पित, नवीनता से भरी, रोमांचकारी, सुखमयी और दुखदायी घटनाएँ प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में घटित होती रहती हैं और उसकी विशेषता है कि हर एक का जीवन, दैनिक गतिविधियाॅं भिन्न-भिन्न होती हैं। दो भिन्न व्यक्तियों का जीवन एक- सा कभी नहीं होता।
जीवन में कभी- कभी दुखद घटनाओं का ऐसा नित्यक्रम आरंभ होता है ,जो थमने का नाम ही नहीं लेता। ऐसे में ऊपर से कठोर दिखने वाला मनुष्य भी निराशा की गहराई में धॅंसता चला जाता है। कुछ लोग अपनी निराशा, अपनी उदासी छिपाकर ऊपर से तो वीरता का भाव दिखाते रहते हैं,परंतु अंदर ही अंदर आँधी के थपेड़े से गिरे किसी पेड़ की भाँति टूट चुके होते हैं। ऐसा प्रसंग हर एक के जीवन में कभी न कभी आता ही है कि तब उसे लगता है कि बस!अब बहुत हो चुका!अब जीवन में रखा ही क्या है ? अब जीवन जीने का प्रयोजन ही क्या है? वैसे तो ऐसे मनुष्य इस बात को स्वीकार नहीं करते, परंतु अंदर ही अंदर वे दुखद घटनाएं,दुखद प्रसंग, उनका स्मरण, तथा उनकी आँच मनुष्य के मन को जलाती रहती है।ये घटनाएं मन की गहराइयों में पैठ जाती हैं।
सन 1995 में मैंने मुंबई के जहांगीर आर्ट गैलरी में एक चित्र प्रदर्शनी आयोजित की थी। यह प्रदर्शनी सभी पहलुओं पर खरी उतरी थी।विशेषत: आर्थिक रूप से यह प्रदर्शनी अत्यंत सफल रही थी। उन दिनों मैं नालासोपारा में रहता था और 'केमोल्ड' नामक एक कंपनी में नौकरी किया करता था। मेरा काम कंपनी के फ्रेमिंग डिपार्टमेंट में होने के कारण मुझे लोअर परेल,प्रिंसेस स्ट्रीट, वसई तथा जहांगीर आर्ट गैलरी इन इलाकों में हर दिन जाना पड़ता था। प्रातः 7:00 बजे से लेकर रात्रि 11:00 बजे तक काम करके थका- हारा मैं घर आता था। यह मेरा नित्य दिनक्रम बन चुका था। तथा इसी दिनक्रम को और लोकल की उस जानलेवा भीड़ को सहना अब मेरे लिए कठिन हो चुका था। मेरे मन में एक ही भाव बार-बार उमड़ता रहता था कि मैं यहाॅं हर दिन जी नहीं रहा हूॅं, बल्कि प्रतिदिन मर रहा हूॅं।
मुझे हमेशा से ही पंचगनी- महाबलेश्वर की प्रकृति, वहाॅं का प्राकृतिक सौंदर्य अपनी ओर आकर्षित करता रहा था।इसलिए मैंने अपने पैतृक गांव वापस जाने का निर्णय लिया।पंचगनी में मुझे अपने चित्रों के विक्रय के लिए आर्ट गैलरी तैयार करनी थी।इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए मैं दिन-रात बेचैन रहता था।इसके लिए मैं हर संभव प्रयास कर रहा था।आखिरकार मेरी लगन रंग लाई और मुझे सिडनी पाॅईंट के पास एक पुराना बंगला किराए पर मिल गया।उस पुराने बंगले को आर्ट गैलरी का रूप देते -देते मेरे पैसे कब और कैसे हवा हुए, मुझे पता ही नहीं चला।फिर भी अपनी जिद पूरी करते हुए मैंने आर्ट गैलरी बनाई। सौभाग्य से सभी पर्यटक तथा स्थानीय निवासी दोनों ने उसकी अच्छी सराहना की। परंतु 1 साल पूरा होने से पहले ही मकान मालिक ने धोखा दिया और मकान खाली करने के लिए कहा। मैंने कई बार उससे विनती की, पर वह नहीं माना। तब व्यावसायिक दृष्टि से मैं पूरी तरह से टूट गया। तत्पश्चात काल ने ऐसी करवट बदली कि मेरे बुरे दिन शुरू हुए …….
एक नई शुरुआत, नए स्थान की खोज आरंभ हुई।कभी पंचगनी क्लब, कभी टेबल लैंड की गुफा तो कभी मैप्रो गार्डन-ऐसी नई-नई जगहों पर गैलरी बनाने का प्रयास करता रहा। हर जगह नई अडचनें, नया इंटीरियर, नए प्रयोग करने पड़ते थे। हर साल जगह बदलनी पड़ती थी।उन दिनों एक बार मैंने मैप्रो गार्डन में खुले आसमान के नीचे 'प्लाजा' जैसी प्रदर्शनी लगाई थी। परंतु यहाॅं पर भी दुर्भाग्य ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। एक दिन मई के महीने में अचानक किसी बिन बुलाए मेहमान की तरह आसमान में बादल घूमडकर आए। जोरों की वर्षा हुई और देखते ही देखते मेरे सारे चित्र, ग्रीटिंग कार्ड ,कैलेंडर ,पोस्टर सभी कुछ तहस-नहस कर चली गई। उन चित्रों के साथ मेरी सारी मेहनत और मेरी उम्मीदों पर भी पानी फिर गया। मॅप्रो का कोई भी कर्मचारी मेरी सहायता के लिए आगे नहीं आया। एक-एक स्थान पर जाकर वहां घंटों बैठकर बनाए हुए लगभग 200 चित्र नष्ट हो गए। मॅप्रो के मालिक ने न कोई सहानुभूति जताई, न किसी प्रकार की कोई सहायता की। बल्कि उन्होंने तो मुझे धमकी दे दी कि अगर अभी-इसी समय चित्रों का यह कचरा नहीं उठाया तो उसे रास्ते पर फेंक दिया जाएगा।उन्होंने केवल धमकी नहीं दी वरन् उसे पूरा भी कर दिखाया। उस समय उन्होंने मेरी जो अवहेलना की वह मेरे मानस पटल पर सदा के लिए चिन्हित हो गई। जैसे किसी तेज चाकू से प्रहार कर मेरे मन को क्षत-विक्षतकर दिया हो।
इतने परिश्रम से बनाए गए चित्र नष्ट होने पर तो जैसे मेरे जीवन जीने का संबल ही खत्म हो गया। रहने के लिए घर नहीं, जिंदा रहने के लिए पैसे नहीं, घर वालों का कोई आधार नहीं, ऐसी स्थिति में निराशा के अंधकार ने मुझे अपने गर्भ में दबा लिया। मन में उदासी और निराशा के काले बादलों ने मानो हमेशा के लिए बसेरा कर लिया। फिर अपना जो कुछ थोड़ा-बहुत सामान था ,वह सब उठाकर मैं फिर से मुंबई चला आया। परंतु जगह बदलने से अडचनें थोड़े ही कम होने वाली थीं? मेरे भाग्य को शायद कुछ और ही मंजूर था। मुंबई में मैं फिर से नालासोपारा में रहने लगा।परंतु मेरे जीवन का सबसे बड़ा वज्राघात यहीं पर हुआ।मेरी इकलौती बेटी को डॉक्टर की अक्षम्य में गलती के कारण अपने प्राणों से हाथ धोने पडे। डॉक्टर के गलत इंजेक्शन ने उसकी जान ले ली। इस आघात को सहना मेरे बस की बात नहीं थी। मैं पूरी तरह टूट गया। मैं अंतर्बाह्य रूप से दहल गया।
मेरे मन में अब जीवन की कोई लालसा नहीं रही। जहाॅ-जहाॅ भी मैं गया, सभी जगह निराशा ही मिली। मेरे अंधकार रुपी जीवन की एक मात्र प्रकाश ज्योति भी बुझ गई। ऐसे में जीवन जिए तो कैसे ? और क्यों ? किसके लिए ? ऐसा संघर्षमय जीवन और कितने वर्षों तक जिए ? इन प्रश्नों ने मेरे मन मस्तिष्क को झंझोडकर रख दिया। इस निरंतर संघर्ष से अब मैं थक चुका था। हार चुका था। इसीलिए मैंने आत्महत्या करने का निश्चय किया।मन ही मन मैंने अपना निर्णय अटल कर लिया।
पंचगनी क्लब के ठीक सामने ही सेंट पीटर्स चर्च है।उस चर्च के पीछे एंग्लो इंडियन ख्रिश्चन लोगों की दफन भूमि है।यहां का परिवेश अत्यंत शांत एवं प्रकृति गंभीर है। पंचगनी की खोज जिस अंग्रेज अधिकारी ने की उस जॉन चेसन की कबर यहाॅं है।यह कबर वर्षो से उपेक्षित है।पता नहीं क्यों, पर आत्महत्या करने से पहले एक बार उस कबर के दर्शन कर लूं, फिर मै और मेरी पत्नी स्वाती दोनो आत्महत्या करूॅ, यह हमने मन ही मन तय कर लिया। अपराहन 2:00 बजे लगभग मैं वहाॅ पहुॅंचा। जिस व्यक्ति ने पंचगनी की खोज की,अनगिनत फल फूलों के पेड़ लगाएं, सिल्वर ओक के पेड़ लगाएं,कॉफी, आलू,स्ट्रॉबेरी आदि की खेती शुरू की, इस भूमि पर पहला बंगला बनाया, इस परिवेश का अध्ययन कर इसे एक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया,ब्रिटिश अधिकारी- कर्मचारियों के बच्चों के लिए अंग्रेजी स्कूल शुरू किए,उस महान जॉन चेसन की कबर अत्यंत उपेक्षित पड़ी है। पता नहीं कितने वर्षों से वहां की साफ सफाई न हुई हो। मैंने आस-पास की झाड़ियों को तोड़कर जगह साफ की और वहीं बैठ गया।
जैसे ही मैं उस कबर के सामने बैठा, पता नहीं कैसे पर मेरी अंतरात्मा को एक अजीब-सी अनुभूति हुई और मैं आंखें मूंदकर उस कबर के साथ बातचीत करने लगा। इस निर्जन स्थल पर ध्यान मग्न हो गया। मुझे मेरे आस-पास के परिवेश का कोई ध्यान नहीं रहा। कई घंटों तक मैं उसी समाधि अवस्था में वहां बैठा रहा।अचानक मेरे कंधे पर किसी हाथ का आभास हुआ और मैंने अपनी आंखें खोली। पीछे मुड़कर देखा तो मेरा मित्र आयझॅक सिंह नजर आया। आयझॅक ने मुझे प्रेमावेग से अपनी बाहों में भर लिया। मेरे आंसू पूछे, मुझे सांत्वना दी और मेरी सारी कहानी ध्यान पूर्वक सुनी।
आयझॅक पंचगनी में कंप्यूटर सिखाता था। संगणक तथा उसके शास्त्र का संपूर्ण ज्ञान उसे था। सभी को वह प्रेम से,अपनेपन से सिखाता था। मुझे कंप्यूटर पर चित्र बनाने के लिए प्रोत्साहित करता था और चित्र बनने पर सच्चे मन से प्रशंसा भी करता था। सभी को प्यार से समझाने-सिखाने के कारण देसी विदेशी छात्र प्रसन्नता से उससे कंप्यूटर सीखते थे। वह हमेशा अपने काम में व्यस्त रहता था। उसका चलना भी मानो दौड़ना होता था। आयझॅक बहुत ही सच्चा,मजेदार और जिंदादिल इंसान था…….
'अब मैं आत्महत्या करने जा रहा हूं' ऐसा कहने पर उसने प्रथमत: मेरा अभिनंदन किया और बोला कितने कठिन संघर्ष से तूने चित्रकला सीखी, पंचगनी के प्राकृतिक सौंदर्य के असंख्य के चित्र बनाएं, चित्र प्रदर्शनी की। पर अपनी स्वयं की जगह न होने के कारण तुझे बहुत परेशानी , बहुत अडचनें सहनी पड़ी, इस बात का मैं गवाह हूॅ। तेरे सभी चित्र बारिश में नष्ट हो गए, आर्थिक स्थिति खराब हुई। तेरे सभी प्रश्नों के उत्तर तो मेरे पास नहीं हैं।तुझे सफलता क्यों नहीं मिली? यह मैं नहीं बता सकता। पर तूने बहुत संघर्ष किया है, परिश्रम किया है।इसलिए तू आत्महत्या मत कर ऐसा भी मैं तुझे नहीं वह कहूंगा। मैं तुमसे एक ही विनती करता हूं कि जो कला तेरे हाथों में जीवित है, वह तेरे साथ ही खत्म हो जाएगी……..
इसलिए तू कुछ दिनों के लिए बिलिमोरिया स्कूल में बच्चों को चित्रकला सिखा। वहाॅ कोई कला शिक्षक भी नहीं है।उन बच्चों को एलिमेंट्री और इंटरमीडिएट आदि चित्रकला की परीक्षाएं देनी है। उन्हें गुरु की आवश्यकता है। तू अगर आत्महत्या कर चला गया तो तेरी कला भी तेरे साथ ही चली जाएगी।अगर तूने तेरी यह कला किसी और को न सिखाई तो सामने दिख रहा है येशू तुझे कभी माफ नहीं करेगा…
तू केवल एक महीने तक इन बच्चों को चित्रकला सीखा और फिर आत्महत्या कर। मैं तुझे नहीं रोकूंगा…
पर मैंने अभी तक चित्रकला किसी को सिखाई नहीं।यह अंग्रेजी माध्यम का स्कूल है। मैंने ए.टी.डी. या ए.एम. की पदवी नहीं प्राप्त की है।ऐसे में वे लोग मुझे कैसे स्वीकार करेंगे ? यह मुझसे नहीं होगा।
मैंने कमर्शियल आर्ट सीखा है,पर शिक्षा से मिला कभी कोई संबंध नहीं रहा है।ऐसी विनती मैंने उससे की।
आयझॅक बहुत ही हठी था। उसने अपने गले की ग्रीन टाय निकाल कर मेरे गले में डाल दी और कहने लगा- ' मिस्टर आर्टिस्ट सुनील काले, नाउ यू आर लुकिंग वेरी स्मार्ट आर्ट टीचर।' मैं तुम्हें वचन देता हूं कि तुम्हें वहाॅ किसी प्रकार की कोई तकलीफ नहीं होगी। तुम्हारा इंटरव्यू भी नहीं होगा।कोई शर्त नहीं होगी। सुबह का नाश्ता, दो समय का खाना, शाम की चाय और रहने के लिए एक कमरा मिलेगा।
मनुष्य को जीने के लिए और क्या चाहिए ? रोटी, कपड़ा, मकान और एक नौकरी…..
तुम्हें अगर यह सभी चीजें मिल रही हो तो तुम्हें इस चुनौती को स्वीकार करना चाहिए। एक महीने की तो बात है।उसके बाद तू जो आत्महत्या करने जा रहा है, उसे भी मैं विरोध नहीं करूंगा। फिर समस्या क्या है ? इस संसार से जाने से पहले अपने सर्वोत्तम अनुभव, अपना सर्वोत्तम ज्ञान तू बच्चों को दे यही मेरी विनती है।
थोड़ा शांति से सोचने पर मुझे उसकी बात सही लगी। अपना सर्वोत्तम ज्ञान, अपनी सर्वोत्तम कला बच्चों को दूॅगा और तभी आत्महत्या करुॅंगा, यह निश्चय मैंने कर लिया।
दूसरे दिन सुबह बिलिमोरिया स्कूल पहुंच गया। प्रधानाचार्य साइमन सर ने मुझे नियुक्ति पत्र दिया और एक छोटे बच्चों की कक्षा में अध्यापन के लिए भेज दिया। कक्षा में प्रवेश करते ही मुझे देखकर वह छोटे-छोटे बच्चे खुशी से झूम उठे। बहुत वर्षों बाद उन्हें आर्ट टीचर मिले थे। इसलिए उनमें उत्साह भर आया और वे सभी लड़के-लड़कियां मेरे इर्द-गिर्द इकट्ठे हो गए। सभी अपने-अपने चित्र, चित्रकला की कापियां, क्रेयॉन कलर बॉक्स दिखाने लगे।बच्चों का यह उत्साह देखकर मैं भी उत्साहित हुआ और खुशी से उन्हें चित्रकला सिखाने लगा। मुझे ऐसा आभास होने लगा मानो मैं अपनी छोटी बच्ची को ही चित्रकला सिखा रहा हूॅं।
सिखाते सिखाते 2 घंटे कैसे बीत गए मुझे पता ही नहीं चला। सायली पिसाल, आकाश दुबे,उत्सव पटेल, ताहिर अली ऐसे नाम मुझे आज भी स्मरण हैं। तब पहली तासिका के बाद दूसरी कक्षा,नए बच्चे, नई पहचान, नई जिज्ञासा वाले नए बच्चे, उनकी निश्छल भावनाएं।मुझे अंतर्मन तक छू गई। नई पहचान, नया परिचय पाने के बाद वे छोटे बच्चे-बच्चियाॅं स्कूल के बाद भी मेरे कमरे के आसपास ही घूमने लगे। उन्हें अपने नए चित्र मुझे दिखाने होते थे। फिर मैं भी उन्हें क्राफ्ट, ऑरिगामी, चित्रों के अलग-अलग विषय, प्रकार उन्हें सिखाने लगा। नियमित रूप से उनके व्यक्तिचित्र, स्केचिंग करने लगा। मुझे काफी नए मित्र बिलिमोरिया स्कूल में मिले। इस प्रकार एक महीना, दूसरा महीना,तीसरा महीना कैसे बीता पता ही नहीं चला।
एक स्कूल का यह नया अपरिचित संसार मैं अनुभव कर रहा था।
यह मेरे लिए बहुत ही अलग था। स्कूल में भले ही मैं हर रोज नई-नई शर्ट पहनता था, पर मेरी टाय एक ही होती थी-
आयझॅक सर ने दी हुई ग्रीन टाय।
इस प्रकार एक वर्ष बीत गया और अगले वर्ष मैंने सेंट पीटर्स नामक ब्रिटिश स्कूल में नौकरी स्वीकार की तथा मेरी पत्नी स्वाती मेरे स्थान पर बिलिमोरिया स्कूल में पढ़ाने लगी।
सेंट पीटर्स स्कूल में चित्रकला विषय को सदैव प्रोत्साहन मिलता था। बच्चे नई- नई बातें सीख रहे थे। उनके साथ मेरी भी चित्रकला नया रूप, नया साज लेकर निखर रही थी। इस नए स्कूल के परिवेश, उसके प्राकृतिक सौंदर्य एवं वास्तुकला के नए चित्र मैं बनाने लगा। इन दिनों मेरी चित्र प्रदर्शनी नेहरू सेंटर, फिर ओबराय टाॅवर होटल और 2002 में जहांगीर आर्ट गैलरी में हुई। यहां दर्शकों ने उसे खूब सराहा और चित्रों की अच्छी बिक्री हुई।
मेरी आर्थिक स्थिति में भी सुधार आया और मैंने 2003 में एक रो-हाउस खरीदा तथा एक नए स्टूडियो का निर्माण भी किया।
सेंट पीटर्स स्कूल में ड्रेस कोड होने के कारण मैंने कई सारे नए कपड़े खरीदे। उन दिनों मेरे पास रंग बिरंगी कुल 80 टाय जमा हो चुकी थी। आज भी यादों के रूप में मैंने उन्हें संभाल कर रखा है। परंतु उन सब में एक टाय मैंने बहुत प्यार से, लगाव व अपनेपन से संभाल कर रखी है-
वह है आयझॅक सर की दी हुई ग्रीन टाय।
आज भी कभी मैं निराशा तथा दुख में डूबता हूॅं, तब मुझे आयझॅक की याद आती है। आजकल आयझॅक अमेरिका में रहता है और अब उसकी शादी भी हो चुकी है। फेसबुक पर कभी-कभार संपर्क हो जाता है। जीवन में कितना भी अमीर बनूं, मेरी आर्थिक स्थिति मजबूत हो या कमजोर हो-फिर भी एक चीज मैं उसे कभी वापस नहीं करूंगा और वह है उसने दी हुई ग्रीन टाय।
……..क्योंकि वह ग्रीन टाय मुझे स्वयं ही कभी-कभी आयझॅक बना देती है। मुझे मिलने कई कलाकार मित्र आते रहते हैं। कुछ नवसीखिए होते हैं,कुछ निराशा में डूबे होते हैं, किसी ने सभी उम्मीदें खोई होती हैं, कुछ कला शिक्षक होते हैं। वे कई बातों की शिकायत करते हैं, दुखड़ा सुनाते हैं। उनकी कई समस्याएं होती हैं, पर उन्हें समस्याओं का समाधान नहीं मिलता। ऐसे प्रसंग में मैं काले सर के स्थान पर आइझॅक सर बन जाता हूॅं। मैं तो कहूंगा कि आयझॅक का संचार मुझमें हो जाता है।
जब-जब ऐसे निराश, व्यथित , दुखी लोग हमें मिलते हैं तब- तब हम सभी ने, प्रत्येक व्यक्ति ने आयझॅक बनकर उनको इस निराशा, व्यथा और दुख से बाहर निकालना चाहिए, ऐसा मेरी अंतरात्मा मुझे बताती रहती है। उसकी ग्रीन टाय का स्मरण कराती रहती है।
जीवन आत्महत्या कर समाप्त करने के लिए नहीं होता, अपितु अपने जीवन और व्यक्तित्व का सर्वोत्तम देने के लिए, सर्वोत्तम जीने के लिए,सर्वोत्तम सीखने के लिए,सर्वोत्तम सिखाने के लिए, सर्वोत्तम देखने के लिए, सर्वोत्तम सुनने के लिए, सर्वोत्तम सुनाने के लिए, जीवन के हर सर्वोत्तम पहलू को उजागर करने के लिए होता है।
ऐसे कई आयझॅक मुझे समय-समय पर मिलते गए और मेरा जीवन समृद्ध करते गए। 21 वर्ष हुए अब इस घटना को। आत्महत्या का विचार भी अब मैं भूल चुका हूं। ऐसे कई आयझॅक हमें अलग-अलग नामों से, अलग-अलग रूपों में मिलते रहते हैं। कभी कोई मिला तो आपको भी ऐसा आयझॅक और एक ग्रीन टाय मिले। नहीं तो.....
आप ही किसी का आयझॅक बन जाएं और उस निराश दुखियारे को एक ग्रीन टाय दें और उसके जीवन के अंधकार को सदा के लिए दूर कर दे।
इसी कामना के साथ…...
ऐसी है मेरी ग्रीन टाय की यादें…...
मुझे सदैव प्रकाश पर्व की ओर ले जानेवाली.....
✍️सुनील काले[ चित्रकार]
9423966486.